मूल श्लोक: 9
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥9॥
शब्दार्थ
- जन्म — शरीर ग्रहण करना, जन्म लेना
- कर्म — कर्म, क्रिया, कार्य
- च — तथा, और
- मे — मेरा, मुझ से संबंधित
- दिव्यम् — दिव्य, अलौकिक, परम ज्ञान
- एवं — इस प्रकार, ऐसे ही
- यो — जो व्यक्ति
- वेत्ति — जानता है, समझता है
- तत्त्वतः — तत्त्व रूप में, वास्तविकता के अनुसार
- त्यक्त्वा — त्यागकर, छोड़कर
- देहं — शरीर को
- पुनर्जन्म — पुनः जन्म नहीं लेना
- नैति — नहीं जाता, नहीं होता
- माम् — मुझ तक, परमात्मा तक
- एति — पहुँचता है
- सोऽर्जुन — वह व्यक्ति, हे अर्जुन
हे अर्जुन! जो मेरे जन्म एवं कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानते हैं वे शरीर छोड़ने पर संसार में पुनः जन्म नहीं लेते अपितु मेरे नित्य धाम को प्राप्त करते हैं।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को एक अत्यंत महत्वपूर्ण आध्यात्मिक सत्य से अवगत करा रहे हैं। वे कहते हैं कि उनका जो जन्म है और कर्म है, वह दिव्य है, सामान्य जीवों के जन्म और कर्म से भिन्न है। इसे जानने वाला व्यक्ति, जो इस दिव्यता को समझ लेता है और भेद-भाव से ऊपर उठकर देखता है, वह इस संसार के सामान्य पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो जाता है।
यहां जन्म और कर्म का अर्थ केवल भौतिक शरीर ग्रहण करने और सांसारिक क्रियाओं से नहीं है, बल्कि वह उनके दिव्य अर्थ को समझना है। भगवान का जन्म सांसारिक कारणों से नहीं होता, बल्कि यह ईश्वर की लीला का स्वरूप है। उनके कर्म भी सांसारिक फल के लिए नहीं, बल्कि सृष्टि के पालन और संचालन के लिए होते हैं।
जो व्यक्ति इस सच्चाई को समझता है, वह अपने शरीर (देह) को त्यागने के बाद पुनः सामान्य जन्म ग्रहण नहीं करता। सामान्य जीवात्मा पुनर्जन्म के चक्र में रहता है, लेकिन जो परमात्मा की दिव्यता को समझता है, वह जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो, भगवान के पास, परमधाम को प्राप्त होता है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक अद्वैत वेदांत और भगवद्गीता के गहन सिद्धांतों का सार प्रस्तुत करता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि परमात्मा का जन्म और कर्म सामान्य जीवों से भिन्न है, वे दिव्य हैं। इस दिव्यता को समझना तत्त्व ज्ञान कहलाता है।
इस ज्ञान को प्राप्त व्यक्ति जन्म और मृत्यु के सामान्य चक्र से ऊपर उठ जाता है। उसे पुनर्जन्म की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि उसकी आत्मा परमात्मा से मिल चुकी होती है।
यह श्लोक मोक्ष, मुक्ति और भगवान के साथ अभेद की प्राप्ति का मार्ग दर्शाता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- जन्म कर्म दिव्यम् — भगवान का जन्म और कर्म दिव्य है, उनका जन्म सांसारिक नहीं, बल्कि आत्मा के उद्देश्य की पूर्ति हेतु होता है।
- वेत्ति तत्त्वतः — वह जो इस रहस्य को समझता है कि भगवान और आत्मा का वास्तविक स्वरूप एक है।
- त्यक्त्वा देहम् — शरीर का त्याग करना, यानी मृत्यु के बाद जन्म के चक्र से मुक्त होना।
- पुनर्जन्म नैति — जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति प्राप्त करना।
- माम एति — परमात्मा के साथ मिल जाना, आध्यात्मिक मुक्ति।
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- जन्म और कर्म केवल भौतिक क्रियाएं नहीं हैं, उनका दिव्य अर्थ और उद्देश्य समझना आवश्यक है।
- जो व्यक्ति इस दिव्य सत्य को समझता है, वह जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो सकता है।
- मृत्यु के बाद पुनः सांसारिक जन्म लेना दुख और बंधन है, इससे मुक्ति ही सच्ची सफलता है।
- परमात्मा की दिव्यता को समझना और उस पर विश्वास करना जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य होना चाहिए।
- शरीर को छोड़ना केवल भौतिक दृष्टि से मृत्यु है, परन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से जन्म-मृत्यु से मुक्त होना सच्ची आत्मा की विजय है।
गहन दार्शनिक विवेचना
यह श्लोक भगवद्गीता के ज्ञानयोग और भक्तियोग दोनों के सिद्धांतों को समेटे हुए है। ज्ञानयोग के अनुसार, व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि जीव आत्मा अविनाशी है और जन्म-मरण के चक्र में फंसा रहता है। परंतु परमात्मा का जन्म और कर्म दिव्य है, इसलिए जो इस रहस्य को जान लेता है, वह संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।
भक्तियोग के अनुसार, जो व्यक्ति भगवान की दिव्यता और उनके जन्म-कार्य को समझकर भक्ति करता है, वह मृत्यु के बाद पुनः जन्म नहीं लेता। उसकी आत्मा भगवान के साथ मिल जाती है।
इस प्रकार, यह श्लोक मोक्ष के मार्ग को बहुत ही सरल और सारगर्भित रूप में प्रस्तुत करता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैंने अपने जीवन में भगवान के दिव्य जन्म और कर्म को समझा है?
क्या मैं जीवन और कर्म को केवल सांसारिक रूप में देखता हूँ, या उनके आध्यात्मिक अर्थ को भी समझता हूँ?
क्या मैं जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति पाने के लिए प्रयत्नशील हूँ?
क्या मेरा विश्वास और भक्ति भगवान की दिव्यता में दृढ़ है?
क्या मैं अपने शरीर को ही अपनी असली पहचान मानता हूँ, या आत्मा की दिव्यता को समझता हूँ?
क्या मैं अपने कर्मों को भगवान के रूप में देख कर निष्काम भाव से करता हूँ?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में जन्म, कर्म और मृत्यु के सामान्य और दिव्य अर्थ के बीच एक गहरा अंतर समझाया है। वे कहते हैं कि उनका जन्म और कर्म संसार के नियमों से अलग, दिव्य और अलौकिक है।
जो इस गूढ़ रहस्य को समझता है, वह अपने सांसारिक शरीर को छोड़ने के बाद पुनः सांसारिक जन्म नहीं लेता, बल्कि परमात्मा के पास पहुँच जाता है।
यह ज्ञान मोक्ष का आधार है, जो जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति दिलाता है। इस श्लोक से यह स्पष्ट होता है कि आध्यात्मिक जागरूकता और भगवान के दिव्य स्वरूप का ज्ञान ही जन्म-मरण के बंधनों को तोड़ने का मूल उपाय है।
इस प्रकार यह श्लोक हमें जीवन के उद्देश्य को समझने, परमात्मा की भक्ति और ज्ञान के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है।