Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 4, Sloke 8

मूल श्लोक: 8

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥

शब्दार्थ

  • परित्राणाय — उद्धार करने के लिए, रक्षा करने के लिए
  • साधूनां — साधुजन, धर्मात्मा, पुण्यात्मा लोग
  • विनाशाय — नाश करने के लिए
  • — और
  • दुष्कृताम् — दुष्ट, अधर्मी, पापी लोग
  • धर्मसंस्थापनार्थाय — धर्म की स्थापना के उद्देश्य से
  • सम्भवामि — मैं प्रकट होता हूँ
  • युगे युगे — प्रत्येक युग में, समय-समय पर, काल-काल में

भक्तों का उद्धार, दुष्टों का विनाश और धर्म की मर्यादा को पुनः स्थापित करने के लिए मैं प्रत्येक युग में प्रकट होता हूँ।

विस्तृत भावार्थ

यह श्लोक भगवद्गीता का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध श्लोक है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अपने अवतार का उद्देश्य स्पष्ट करते हैं।

संसार में धर्म और अधर्म की निरंतर लड़ाई चलती रहती है। जब भी धर्म कमजोर होता है, अधर्म की वृद्धि होती है और पाप का बोलबाला होता है, तब-तब ईश्वर किसी न किसी रूप में, समय-समय पर अवतरित होकर इस असंतुलन को पुनः स्थापित करते हैं।

यह अवतार केवल एक प्रकट स्वरूप नहीं है, बल्कि यह एक दिव्य योजना और परम सत्य की अभिव्यक्ति है। ईश्वर का उद्देश्य है धर्म की स्थापना करना, साधु और पुण्यात्मा व्यक्तियों का संरक्षण करना और पापियों और अधर्मियों का विनाश करना।

यह केवल दैवीय न्याय का कार्य है जो अवतार के माध्यम से संभव होता है। भगवान इस प्रक्रिया में स्वयं संसार के नियमों और कर्मों के भीतर रहकर भी स्वतंत्र और अजर-अमर रहते हैं।

श्रीकृष्ण अर्जुन को यह समझा रहे हैं कि अवतार केवल एक ऐतिहासिक घटना नहीं, बल्कि यह सतत होता कार्य है जो हर युग में होता रहता है। क्योंकि मानव स्वभाव, लोभ, क्रोध, अहंकार और अज्ञानता जैसी कमजोरियां प्रत्येक युग में नए रूप में उत्पन्न होती रहती हैं।

भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण

दार्शनिक दृष्टिकोण

भगवान की यह अभिव्यक्ति यह दर्शाती है कि परमात्मा न तो संसार से अलग है और न ही निष्क्रिय। वे निरंतर सक्रिय हैं और उनका उद्देश्य सृष्टि में संतुलन बनाए रखना है।

धर्म और अधर्म का यह संघर्ष मानव जीवन का मूल तत्व है। जहाँ धर्म के पतन के कारण सामाजिक और आध्यात्मिक अराजकता फैलती है, वहाँ भगवान का अवतार सामाजिक व्यवस्था को पुनर्स्थापित करता है।

यह शाश्वत नियम है — समय-समय पर भगवान का अवतार होना ताकि सत्य की रक्षा हो और अधर्म का विनाश हो। इसे संस्कृत में ‘धर्मो रक्षति रक्षितः’ का सिद्धांत कहा जाता है।

यह श्लोक बताता है कि भगवान हर युग में संसार के कल्याण के लिए अवतरित होते हैं — यह न केवल एक कथा है, बल्कि ईश्वर के चरित्र का महत्वपूर्ण पहलू है।

प्रतीकात्मक अर्थ

  • परित्राणाय साधूनां — ईश्वर का उद्देश्य है धर्मात्मा, सच्चे और पुण्यात्मा लोगों की रक्षा करना, जो समाज के नैतिक आधार होते हैं।
  • विनाशाय दुष्कृताम् — दुष्टों और अधर्मियों का नाश करना, जो समाज और प्रकृति में विघ्न डालते हैं।
  • धर्मसंस्थापनार्थाय — धर्म को पुनः स्थापित करना, जो समाज की व्यवस्था, नैतिकता और आध्यात्मिकता का मूल है।
  • सम्भवामि युगे युगे — ईश्वर का यह अवतार सतत और काल-काल में होने वाला कार्य है।

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • धर्म की रक्षा और अधर्म के नाश के लिए ईश्वर का अवतार आवश्यक है, और यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है।
  • प्रत्येक व्यक्ति को धर्म के मार्ग पर चलने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि यही वे आधार हैं जिन पर सृष्टि टिकती है।
  • अधर्म से लड़ाई केवल बाहरी नहीं, बल्कि आंतरिक भी है — मन और इन्द्रियों की लड़ाई।
  • जब हम स्वयं धर्म के अनुसार जीवन जीते हैं, तो हम भी ईश्वर के कार्य में सहायक बनते हैं।
  • ईश्वर के अवतारों का स्मरण हमें आश्वस्त करता है कि अधर्म कभी स्थायी नहीं होता, सत्य की अंततः विजय होती है।

आत्मचिंतन के प्रश्न

क्या मैं अपने जीवन में धर्म की रक्षा के लिए सक्रिय हूँ?
क्या मैं अधर्म के प्रभाव से दूर रहकर अपने मन और कर्म को शुद्ध रखता हूँ?
क्या मैं ईश्वर के अवतारों की महत्ता और उनके उद्देश्य को समझता हूँ?
क्या मैं अपने जीवन में सत्य, न्याय और नैतिकता की स्थापना के लिए प्रयत्नशील हूँ?
क्या मैं जानता हूँ कि हर संकट में भी ईश्वर का संरक्षण और पुनःस्थापन होता है?

    निष्कर्ष

    यह श्लोक भगवद्गीता का सार है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं की दिव्यता और अवतार के उद्देश्य को सुस्पष्ट रूप से प्रकट किया है।

    यह हमें यह विश्वास देता है कि ईश्वर समय-समय पर इस संसार में प्रकट होकर अधर्म का विनाश करता है और धर्म की पुनर्स्थापना करता है। यह आश्वासन है कि चाहे संसार में कितना भी अराजकता क्यों न हो, सत्य और धर्म की विजय निश्चित है।

    श्रीकृष्ण हमें यह भी प्रेरित करते हैं कि हम स्वयं भी धर्म के रक्षक बनें, अपने जीवन में नैतिकता, सत्य, और धर्म का पालन करें और अधर्म की शक्तियों से लड़ने का साहस रखें।

    इस श्लोक में ईश्वर का अवतार केवल एक कथा नहीं, बल्कि सम्पूर्ण सृष्टि में धर्म की निरंतर रक्षा का सिद्धांत समाहित है।

    “धर्म की रक्षा और अधर्म के विनाश के लिए ईश्वर युग-युगान्तर में अवतरित होते हैं, और हमें भी धर्म की राह पर चलकर उनका साथ देना चाहिए।”

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