मूल श्लोक: 1
अर्जुन उवाच —
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥1॥
शब्दार्थ
- अर्जुन उवाच — अर्जुन ने कहा
- संन्यासम् — संन्यास, कर्मों का त्याग
- कर्मणाम् — कर्मों का (सामान्य कर्तव्यों का)
- कृष्ण — हे कृष्ण
- पुनः — फिर
- योगम् — कर्मयोग, बिना फल की इच्छा के कर्म करना
- च शंससि — आप प्रशंसा करते हैं, गुणगान करते हैं
- यत् — जो
- श्रेयः — श्रेयस्कर, श्रेष्ठ
- एतयोः — इन दोनों में से
- एकम् — एक
- तत् मे — वह मुझे
- ब्रूहि — बताइए
- सुनिश्चितम् — स्पष्ट और सुनिश्चित रूप से
अर्जुन ने कहा-हे कृष्ण! पहले आपने कर्म संन्यास की सराहना की और फिर आपने मुझे भक्ति युक्त कर्मयोग का पालन करने का उपदेश भी दिया। कृपापूर्वक अब मुझे निश्चित रूप से बताएँ कि इन दोनों में से कौन सा मार्ग अधिक लाभदायक है।

विस्तृत भावार्थ
यह श्लोक अर्जुन की उस गहरी मानसिक द्वंद्व को दर्शाता है, जो उसे युद्ध और धर्म के कर्तव्यों के बीच संतुलन बनाने में बाधित कर रही थी। अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से स्पष्ट मार्गदर्शन चाहता है क्योंकि उसे भ्रम हो गया है कि संन्यास (कर्म का त्याग) श्रेयस्कर है या कर्मयोग (फल की अपेक्षा छोड़कर कर्म करना)।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के पिछले अध्यायों में कभी-कभी संन्यास की प्रशंसा की और कभी-कभी कर्मयोग की। इससे अर्जुन भ्रमित हो गया कि कौन-सा मार्ग अंतिम रूप से जीवन के लिए सर्वोत्तम है।
अर्जुन की यह जिज्ञासा केवल उसकी नहीं है, बल्कि हर उस व्यक्ति की है जो आध्यात्मिक मार्ग पर चलना चाहता है। क्या हमें सांसारिक कर्तव्यों का परित्याग कर संन्यास लेना चाहिए, या कर्म करते हुए परमात्मा की ओर बढ़ना चाहिए?
यहाँ अर्जुन भगवान से आग्रह करता है कि वे सुनिश्चित और स्पष्ट रूप से बताएं कि इन दोनों में से कौन-सा मार्ग श्रेयस्कर है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
इस श्लोक में जीवन के दो प्रमुख आध्यात्मिक मार्गों की तुलना की गई है:
- संन्यास (त्यागमार्ग):
कर्मों का परित्याग करके मनुष्य संपूर्ण रूप से परमात्मा के ध्यान में लीन हो जाता है। यह मार्ग उन लोगों के लिए है जो पूर्ण वैराग्य, आत्मनियंत्रण और समाधिस्थ स्थिति में पहुँच चुके हैं। - कर्मयोग (निष्काम कर्म):
सांसारिक जीवन में रहते हुए, बिना फल की इच्छा के अपने कर्तव्यों का पालन करना। यह मार्ग सभी के लिए सुलभ है और श्रीकृष्ण द्वारा अत्यंत प्रशंसित है।
इस श्लोक में दर्शनशास्त्र का मूल प्रश्न है — क्या मुक्ति केवल कर्मों के त्याग से संभव है या बिना फल की आसक्ति के कर्म करते हुए भी साध्य है?
प्रतीकात्मक अर्थ
- संन्यास: बाहरी कर्मों का त्याग नहीं, बल्कि भीतर की आसक्ति और ‘मैं’ के भाव का त्याग।
- कर्मयोग: कर्म करते हुए भी अनासक्त रहना — जैसे कमल का फूल जल में रहकर भी उससे अछूता रहता है।
- श्रेय: आत्मिक प्रगति और अंततः मोक्ष — जिसमें व्यक्ति का परमात्मा से एकत्व हो जाता है।
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- जीवन में जब हम धर्म, कर्म, और आत्मा की दिशा में बढ़ते हैं, तब यह द्वंद्व स्वाभाविक है कि त्याग करें या कर्म करते रहें।
- श्रीकृष्ण का उत्तर (जो अगले श्लोकों में आता है) बताता है कि केवल कर्म का बाह्य त्याग ही संन्यास नहीं है; बल्कि मन से त्याग ही सच्चा संन्यास है।
- योग (विशेषतः कर्मयोग) सभी मनुष्यों के लिए अधिक सुलभ और व्यावहारिक मार्ग है। जीवन में कार्य करते हुए, ईश्वर को अर्पित भावना से कर्म करने से व्यक्ति संन्यासी की अवस्था को भी प्राप्त कर सकता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपने जीवन में कर्म करते हुए फल की आसक्ति से मुक्त हो पा रहा हूँ?
क्या मैं कर्मों से भागना चाहता हूँ या उन्हें एक साधना के रूप में स्वीकार करता हूँ?
क्या मेरे जीवन में संन्यास का अर्थ केवल कर्तव्यों का त्याग है या भीतर की आसक्ति से मुक्ति?
क्या मैंने कभी यह समझने की कोशिश की है कि वास्तविक शांति किस मार्ग से मिलेगी — त्याग से या सेवा से?
क्या मैं श्रीकृष्ण की शिक्षा को अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार रहा हूँ?
क्या मेरा योग केवल ध्यान में सीमित है, या मेरे प्रत्येक कर्म में भी वह समाहित है?
निष्कर्ष
भगवद्गीता का यह श्लोक जीवन के उन क्षणों का प्रतिनिधित्व करता है जब मनुष्य अपने मार्ग को लेकर असमंजस में होता है। अर्जुन की यह प्रश्नवाचक मुद्रा हर साधक की है, जो आत्मज्ञान की ओर अग्रसर होना चाहता है।
यह श्लोक हमें सिखाता है कि आध्यात्मिक जीवन में केवल विचारों का भ्रम पर्याप्त नहीं, हमें सुनिश्चित और स्पष्ट मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। यही अर्जुन यहाँ मांग रहा है — “सुनिश्चित रूप से बताइए।”
आने वाले श्लोकों में श्रीकृष्ण स्पष्ट करेंगे कि कर्मयोग अधिक व्यावहारिक, सार्वभौमिक और स्थायी मार्ग है। क्योंकि सच्चा संन्यास त्याग से नहीं, बल्कि निष्काम कर्म और आत्मसमर्पण से प्राप्त होता है।
इसलिए, यह श्लोक जीवन की उस जिज्ञासा को उजागर करता है, जहाँ से वास्तविक ज्ञान प्रारंभ होता है — जब हम अपने भ्रम और असमंजस को स्वीकारते हुए, गुरु से मार्गदर्शन मांगते हैं।