मूल श्लोक: 2
श्रीभगवानुवाच —
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥2॥
शब्दार्थ
- श्रीभगवान् उवाच — भगवान श्रीकृष्ण ने कहा
- संन्यासः — कर्मों का त्याग
- कर्मयोगः — कर्म करते हुए भी आसक्ति का त्याग
- निःश्रेयसकरौ — मोक्ष प्रदान करने वाले, कल्याणकारी
- उभौ — दोनों
- तयोः तु — किन्तु उन दोनों में से
- कर्मसंन्यासात् — कर्मों के संन्यास से
- कर्मयोगः — निष्काम भाव से कर्म करना
- विशिष्यते — श्रेष्ठ है, उत्तम है
भगवान ने कहा-कर्म संन्यास और कर्मयोग दोनों मार्ग परम लक्ष्य की ओर ले जाते हैं लेकिन कर्मयोग कर्म संन्यास से श्रेष्ठ है।

विस्तृत भावार्थ
यह श्लोक श्रीकृष्ण के कर्मवाद का सार है। यहाँ अर्जुन के द्वंद्व — “संन्यास लूँ या कर्म करूँ?” — का समाधान दिया गया है। श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि संन्यास (जिसमें व्यक्ति सभी सांसारिक कर्मों का परित्याग करता है) और कर्मयोग (जिसमें व्यक्ति बिना फल की इच्छा के अपने धर्मोचित कर्म करता है) — दोनों ही आध्यात्मिक रूप से लाभकारी हैं। परंतु उनमें से कर्मयोग को श्रेष्ठ बताया गया है।
क्यों? क्योंकि कर्मयोगी संसार में रहते हुए भी अपने कर्तव्य को निभाता है और आध्यात्मिक उन्नति करता है, जबकि संन्यास की अवस्था में यदि किसी के भीतर वासना या अहंकार शेष रह गया हो, तो वह उलझन में फँस सकता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक कर्म और त्याग के संतुलन की बात करता है। भगवद्गीता का यह सिद्धांत है कि:
- मोक्ष केवल तपस्वी जीवन से नहीं, बल्कि कर्तव्यपालन और निष्कामता से भी संभव है।
- त्याग का वास्तविक अर्थ आसक्ति का त्याग है, न कि कर्म का।
- कर्म को न करने से नहीं, सही भावना से करने से आत्मा की शुद्धि होती है।
इस प्रकार कर्मयोग आत्मिक विकास का व्यावहारिक मार्ग है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- संन्यास — केवल बाह्य त्याग नहीं, बल्कि आंतरिक वासनाओं, मोह, अहंकार और इच्छा का त्याग
- कर्मयोग — जीवन में कार्य करते हुए भी आत्मबोध की दिशा में बढ़ना
- निःश्रेयस — अंतिम कल्याण, मोक्ष
- विशिष्यते — योगसाधना का व्यावहारिक, स्थायी और समर्पणयुक्त रूप
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- त्याग मानसिक होना चाहिए, न केवल शारीरिक — कर्मों को छोड़ने से ज्यादा ज़रूरी है आसक्ति को छोड़ना।
- कर्तव्य को निभाते हुए भी आत्मबोध संभव है — गृहस्थ भी योगी बन सकता है यदि उसका कर्म निष्काम हो।
- जीवन त्यागने की नहीं, भावना बदलने की आवश्यकता है — आंतरिक रूप से मुक्त व्यक्ति चाहे किसी भी अवस्था में क्यों न हो, मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
- कर्म से भागना संन्यास नहीं — कर्म के साथ संतुलित विवेक और आत्मनिष्ठा ही सच्चा योग है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं कर्म से भागकर शांति खोज रहा हूँ, या कर्म में रहते हुए शांति प्राप्त कर रहा हूँ?
क्या मेरा त्याग केवल बाहरी है या भीतर से भी मैं आसक्तियों से मुक्त हूँ?
क्या मैं अपने कर्तव्यों को समर्पणभाव से करता हूँ या अपेक्षाओं से?
क्या मैं कर्म करते हुए भी परमात्मा से जुड़ाव महसूस करता हूँ?
क्या मुझे लगता है कि जीवन में कर्मयोग को अपनाकर भी मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया कि संन्यास और कर्मयोग दोनों ही मोक्ष की राह हैं, परंतु कर्मयोग श्रेष्ठ है क्योंकि यह व्यवहारिक, संतुलित, और सामाजिक जीवन में रहकर आत्मोन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है। यह व्यक्ति को संसार से भागने के बजाय संसार में रहकर परम सत्य की ओर अग्रसर करता है।
कर्म का त्याग करना कठिन नहीं है, परंतु फल की आकांक्षा का त्याग करना साधना है। यही सच्चा योग है। इस श्लोक में जीवन के लिए अत्यंत मूल्यवान मार्गदर्शन है कि हमें अपने कर्तव्यों को ईश्वरार्पण भाव से करते रहना चाहिए।