मूल श्लोक – 17
तबुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिषूतकल्मषाः ॥17॥
शब्दार्थ (शब्दों का संक्षिप्त अर्थ)
- तबुद्धयः — जिनकी बुद्धि उस (परमात्मा) में स्थित है
- तदात्मानः — जिनकी आत्मा उसी में लीन है
- तन्निष्ठाः — जो उसी में स्थित हैं
- तत्परायणाः — जो पूर्णतः उसी के शरणागत हैं
- गच्छन्ति — प्राप्त होते हैं, जाते हैं
- अपुनरावृत्तिं — पुनर्जन्म में नहीं लौटते, मोक्ष प्राप्त करते हैं
- ज्ञाननिषूत — ज्ञान से भलीभाँति शुद्ध
- कल्मषाः — जिनके पाप नष्ट हो गए हैं, मलरहित
वे जिनकी बुद्धि भगवान में स्थिर हो जाती है और जो भगवान में सच्ची श्रद्धा रखकर उन्हें परम लक्ष्य मानकर उनमें पूर्णतया तल्लीन हो जाते हैं, वे मनुष्य शीघ्र ऐसी अवस्था में पहुँच जाते हैं जहाँ से फिर कभी वापस नहीं आना होता और उनके सभी पाप ज्ञान के प्रकाश से मिट जाते हैं।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में श्रीकृष्ण मोक्ष प्राप्त करने की अवस्था का वर्णन करते हैं। वे बताते हैं कि जो साधक अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को परमात्मा में समर्पित कर देता है — उसकी बुद्धि (सोच), आत्मा (चित्त), श्रद्धा और समर्पण सब ईश्वरमय हो जाते हैं।
यह समर्पण केवल बाह्य नहीं बल्कि आंतरिक स्तर पर होता है — वहाँ उसकी पहचान ही परमात्मा में विलीन हो जाती है। जब ऐसा ज्ञानपूर्ण समर्पण होता है, तो उसका अज्ञान और पाप — दोनों नष्ट हो जाते हैं। यह ज्ञान अग्नि की तरह कार्य करता है, जो सभी विकारों को भस्म कर देता है।
परिणामस्वरूप, ऐसा साधक संसार के चक्र (जन्म-मरण) में दोबारा नहीं लौटता — वह अपुनरावृत्ति को प्राप्त होता है, अर्थात् मोक्ष को।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- ज्ञान के प्रभाव से मोक्ष
यह श्लोक सिद्ध करता है कि केवल भक्ति या कर्म नहीं, बल्कि ज्ञान द्वारा कल्मष (पाप) का नाश ही मोक्ष का प्रमुख मार्ग है। - पूर्ण समर्पण की स्थिति
जब साधक की बुद्धि, आत्मा और निष्ठा परमात्मा में स्थिर हो जाती है — तब वह तद्रूप हो जाता है। यही आत्मा-परमात्मा का मिलन है। - अपुनरावृत्ति
यह वैदांतिक विचार है कि जब जीव साक्षात् ब्रह्म को पहचान लेता है, तो वह जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है। - ज्ञाननिषूतकल्मषाः
यहाँ ज्ञान किसी सूचना या पढ़ाई का नाम नहीं, बल्कि आत्मबोध है — जो भीतर से सबकुछ बदल देता है और शुद्ध कर देता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- तबुद्धयः — जो ईश्वर को ही जीवन का चिंतन और मार्गदर्शन मानते हैं
- तदात्मानः — जिनका चित्त, अहं और आत्मबोध केवल ईश्वर में है
- तन्निष्ठाः — अडिग श्रद्धा से स्थिर
- तत्परायणाः — उद्देश्यहीन नहीं, परमात्मा को ही लक्ष्य मानने वाले
- ज्ञाननिषूतकल्मषाः — ज्ञान की तीव्रता से सभी दोषों से मुक्त
- अपुनरावृत्तिं गच्छन्ति — जन्म-मरण रूपी चक्र से सदा के लिए मुक्ति
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- पूर्ण समर्पण ही मुक्ति का मार्ग है
— जब शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा सभी का केंद्र ईश्वर हो जाए। - ज्ञान से शुद्धि अनिवार्य है
— सत्शास्त्रों, आत्मचिंतन, और गुरु के उपदेशों से प्राप्त ज्ञान पापों को भस्म कर देता है। - मुक्ति केवल मरने से नहीं मिलती
— बल्कि जीवित अवस्था में आत्मज्ञान द्वारा संभव है। - मोक्ष व्यक्तिगत साधना से मिलता है
— सामाजिक पहचान या परंपरा से नहीं, आत्मिक रूपांतरण से।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मेरी बुद्धि और चित्त वास्तव में परमात्मा में स्थिर हैं?
क्या मेरी साधना केवल आडंबर है या अंतरात्मा से जुड़ी हुई है?
क्या मैं अपने कर्मों और विचारों को ज्ञान से शुद्ध करता हूँ?
क्या मैं पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति की आकांक्षा रखता हूँ या केवल सांसारिक सुखों का ही चिंतन करता हूँ?
क्या मैं अपने जीवन को परम उद्देश्य — मोक्ष — के अनुकूल ढाल रहा हूँ?
निष्कर्ष
यह श्लोक भगवद्गीता के ज्ञानमार्ग का सार प्रस्तुत करता है। श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि जिनकी बुद्धि, चित्त, श्रद्धा और समर्पण पूर्णतः परमात्मा में स्थित हैं, और जो ज्ञान की अग्नि से अपने समस्त कल्मषों (पापों, विकारों) को भस्म कर चुके हैं — वे जन्म-मरण के चक्र से बाहर निकल जाते हैं।
ऐसे ज्ञानयुक्त साधक अपुनरावृत्ति को प्राप्त होते हैं, अर्थात् वे दोबारा इस संसार में नहीं लौटते, बल्कि परम शांति, परम गति (मोक्ष) को प्राप्त करते हैं।
ज्ञान, श्रद्धा और समर्पण — यही मुक्ति की त्रयी हैं।