मूल श्लोक – 19
इहैव तैर्जितः सर्गों येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥19॥
शब्दार्थ
- इह एव — इसी जीवन में, इस संसार में ही
- तैः — उन लोगों द्वारा
- जितः सर्गः — जन्म-मरण रूपी सृजन (संसार का चक्र) जीत लिया गया है
- येषां — जिनका
- साम्ये स्थितं मनः — मन समत्व में स्थित है, जो समभाव में टिके हैं
- निर्दोषं — निर्दोष, निर्मल
- समं — समभाव वाला, सभी में समान रूप से स्थित
- ब्रह्म — परम ब्रह्म, परमात्मा
- तस्मात् — इसलिए
- ब्रह्मणि ते स्थिताः — वे ब्रह्म में स्थित हैं, ब्रह्मस्वरूप हो गए हैं
वे जिनका मन समदृष्टि में स्थित हो जाता है, वे इसी जीवन में जन्म और मरण के चक्र से मुक्ति पा लेते हैं। वे भगवान के समान गुणों से संपन्न हो जाते हैं और परमसत्य में स्थित हो जाते हैं।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण उस परम स्थिति का वर्णन कर रहे हैं जहाँ मनुष्य जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त हो जाता है। वे कहते हैं कि जिनका मन पूर्णतः समभाव (equanimity) में स्थित है—जो न किसी को ऊँचा समझते हैं न नीचा, न किसी से मोह रखते हैं, न द्वेष—ऐसे साधक इस जन्म में ही संसार के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं।
साम्यता अर्थात् समानता की दृष्टि, चाहे वह मित्र-शत्रु, पुण्य- पाप, लाभ-हानि, जाति-धर्म, ज्ञानी-अज्ञानी आदि के बीच हो—जब किसी का मन इन भेदों से परे जाकर समता में स्थित हो जाता है, तभी वह व्यक्ति ‘निर्दोष ब्रह्म’ को अनुभव कर सकता है।
ब्रह्म समभाव से परिपूर्ण है—वह न किसी में दोष देखता है, न किसी में विशेषता। जो साधक इस भाव को अपने भीतर धारण कर लेता है, वह ब्रह्मस्वरूप हो जाता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- मुक्ति जीवन में ही संभव है (Jivanmukti):
“इहैव” शब्द संकेत करता है कि मोक्ष मृत्यु के बाद की कोई स्थिति नहीं, बल्कि इसी जीवन में उपलब्ध एक वास्तविकता है। - समता ही योग है:
मन का समत्व ही कर्म, ज्ञान और भक्ति के शुद्ध होने की अवस्था है। यही गीता का प्रमुख सन्देश है। - ब्रह्म का लक्षण:
ब्रह्म निर्दोष और समभाव वाला है। वह सभी प्राणियों में समान रूप से स्थित है। - ब्रह्मस्थता का अर्थ:
जो व्यक्ति समभाव में स्थित होता है, वह केवल ज्ञान नहीं रखता बल्कि ब्रह्म के साथ एकता (oneness) प्राप्त करता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- जितः सर्गः — संसार के मोह-जाल पर विजय; मन की स्थिरता
- साम्ये स्थितं मनः — दृष्टिकोण में समानता, न्यायपूर्ण, निष्पक्ष, समचित्त
- निर्दोषं ब्रह्म — जो बिना भेदभाव के सबमें व्याप्त है
- ब्रह्मणि स्थिताः — वह जो अपने अस्तित्व को ब्रह्म के साथ एकाकार कर देता है
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- समान दृष्टि आत्मा की पहचान है:
सच्चा साधक वह है जो सभी जीवों में एक ही आत्मा को देखे, चाहे वह ज्ञानी हो या अज्ञानी, गरीब हो या अमीर। - मन की समता ब्रह्म से मिलन की कुंजी है:
मन यदि राग-द्वेष, मोह-द्वेष से मुक्त हो जाए, तो वह ब्रह्म के स्वरूप को सहज ही पहचान सकता है। - मोक्ष के लिए मरना नहीं, बदलना जरूरी है:
भीतर की दृष्टि को समानता में लाना मोक्ष की दिशा में पहला कदम है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं सभी मनुष्यों को समान दृष्टि से देखता हूँ?
क्या मेरा मन द्वेष, पूर्वाग्रह और भेदभाव से मुक्त है?
क्या मैंने अपने भीतर स्थिरता और समत्व की साधना की है?
क्या मुझे ब्रह्म की निर्दोषता और समता का अनुभव होता है?
क्या मेरी साधना केवल कर्मों तक सीमित है या दृष्टिकोण में भी परिवर्तन आया है?
निष्कर्ष
यह श्लोक भगवद्गीता के समत्व सिद्धांत का सार है। श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो मनुष्य सबको समान रूप से देखता है, उसके लिए संसार के जन्म-मरण का चक्र समाप्त हो जाता है। वह व्यक्ति ब्रह्म को पहचानता है क्योंकि ब्रह्म स्वयं सम और निर्दोष है।
इसलिए, समता का अभ्यास केवल नैतिक सद्गुण नहीं, बल्कि आध्यात्मिक मुक्ति की दिशा में एक प्रभावशाली कदम है।
जो समभाव में स्थित होता है, वही ब्रह्म में स्थित होता है।