मूल श्लोक – 20
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥20॥
शब्दार्थ:
- न प्रहृष्येत् — प्रसन्न न हो, उल्लसित न हो
- प्रियं प्राप्य — प्रिय वस्तु या सुख प्राप्त होने पर
- न उद्विजेत् — व्याकुल न हो, विचलित न हो
- प्राप्य च अप्रियम् — अप्रिय या दुःखद वस्तु प्राप्त होने पर
- स्थिरबुद्धिः — जिसकी बुद्धि स्थिर है, चंचल नहीं
- असम्मूढः — जो मोह से रहित है, भ्रांति में नहीं है
- ब्रह्मविद् — जो ब्रह्म को जानता है
- ब्रह्मणि स्थितः — ब्रह्म में स्थित है, एकत्व में स्थित
परमात्मा में स्थित होकर, दिव्य ज्ञान में दृढ़ विश्वास धारण कर और मोह रहित होकर वे सुखद पदार्थ पाकर न तो हर्षित होते हैं और न ही अप्रिय स्थिति में दुःखी होते हैं।

विस्तृत भावार्थ:
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण एक ब्रह्मज्ञानी व्यक्ति के लक्षण बताते हैं। ऐसा व्यक्ति न तो सुख मिलने पर अत्यधिक हर्षित होता है और न ही दुःख मिलने पर दुखी होता है। वह समत्व की अवस्था में रहता है — जहाँ आत्मा की स्थिरता, विवेक और शांत बुद्धि के साथ वह सभी परिस्थितियों को ब्रह्म रूप मानकर स्वीकार करता है।
- प्रिय और अप्रिय का प्रभाव:
आम व्यक्ति सुख मिलने पर प्रफुल्लित हो जाता है और दुःख आने पर परेशान हो जाता है। परन्तु ब्रह्मज्ञानी सम भाव रखता है क्योंकि वह जानता है कि सुख-दुःख क्षणिक हैं। - स्थिरबुद्धि और असम्मूढता:
जो ब्रह्म को जानता है, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है। वह भ्रम, मोह, राग-द्वेष से मुक्त रहता है। - ब्रह्म में स्थित होना:
ब्रह्म का अर्थ है – परम सत्य, शुद्ध चेतना। उसमें स्थित व्यक्ति बाह्य परिवर्तनों से प्रभावित नहीं होता।
दार्शनिक दृष्टिकोण:
- समत्व योग:
यह श्लोक गीता के “समत्वं योग उच्यते” सिद्धांत का विस्तार है — समता ही योग है। - गुणातीत अवस्था:
यह अवस्था उस योगी की है जो तीनों गुणों (सत्त्व, रजस्, तमस्) से परे हो गया है — जिससे कोई भी भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं निकलती। - मुक्ति की दिशा:
स्थिरबुद्धि होना मोक्ष की सीढ़ी है। चंचल मन कर्मबंधन का कारण है, जबकि समत्व में स्थित मन आत्मा की ओर ले जाता है।
प्रतीकात्मक अर्थ:
- प्रिय / अप्रिय — जीवन के सुख-दुख, लाभ-हानि, सफलता-विफलता
- प्रहृष्येत / उद्विजेत — मन की अत्यधिक प्रतिक्रिया, भावनात्मक असंतुलन
- स्थिरबुद्धि — ध्यान, विवेक और आत्मज्ञान से सुसंगत चेतना
- असम्मूढः — अविद्या और अज्ञान के भ्रम से मुक्त
- ब्रह्मणि स्थितः — अद्वैत में स्थित, ब्रह्म के साथ एकरूप
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा:
- सुख-दुख जीवन का हिस्सा हैं — उन्हें स्वीकार करना और सम भाव रखना ही योग है।
- स्थिरबुद्धि का अभ्यास जरूरी है — जिससे जीवन की परिस्थितियाँ मन को डिगा न सकें।
- आत्मा ही सत्य है — बाहरी अनुभव क्षणिक हैं, ब्रह्म सत्य है।
- मोह-माया से मुक्ति ही ब्रह्मविद की पहचान है।
- ब्रह्मज्ञानी वही है जो भीतर से अडोल और सम है, चाहे जीवन में कुछ भी घटे।
आत्मचिंतन के प्रश्न:
क्या मैं प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति पर बहुत अधिक हर्षित हो जाता हूँ?
क्या अप्रिय घटनाओं पर मेरा मन स्थिर रहता है या विचलित हो जाता है?
क्या मेरी बुद्धि स्थिर है या छोटी-छोटी बातों में डगमगा जाती है?
क्या मैं मोह और भ्रम से मुक्त हूँ?
क्या मैं स्वयं को आत्मा के रूप में अनुभव करता हूँ या केवल शरीर-मन तक सीमित हूँ?
निष्कर्ष:
यह श्लोक आत्म-साक्षात्कार और स्थिर चित्त की साधना का सर्वोच्च आदर्श प्रस्तुत करता है। गीता का यह उपदेश हमें बताता है कि जब व्यक्ति अपने भीतर की आत्मा को जान लेता है, तब वह प्रिय-अप्रिय दोनों स्थितियों में सम रहता है। न उसे सुख लुभाता है, न दुःख डराता है।
ब्रह्म में स्थित होना कोई तीर्थ या वन में जाकर बैठने से नहीं होता, बल्कि यह आंतरिक स्थिरता, समत्व और आत्मबोध की स्थिति है। यही स्थिति मोक्ष का द्वार है।
जो व्यक्ति “न प्रहृष्येत… नोद्विजेत…” के सिद्धांत पर जीता है, वही इस संसार में रहते हुए भी ब्रह्ममय होता है। यही गीता का गूढ़ संदेश है —
“स्थिति में भक्ति, समत्व में शक्ति, और ब्रह्म में एकता।”