मूल श्लोक – 22
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥22॥
शब्दार्थ:
- ये — जो
- हि — निश्चय ही
- संस्पर्शजाः — इंद्रियों के संपर्क से उत्पन्न
- भोगाः — भोग, सुखद अनुभव
- दुःखयोनयः — दुःख का कारण, दुःख की जननी
- एव — निश्चित ही
- ते — वे
- आद्यन्तवन्तः — जिनका आदि और अंत होता है
- कौन्तेय — हे कुन्तीपुत्र (अर्जुन)
- न रमते — आसक्त नहीं होता, नहीं लिप्त होता
- बुधः — ज्ञानी, विवेकी व्यक्ति
इन्द्रिय विषयों के सम्पर्क से उत्पन्न होने वाले सुख यद्यपि सांसारिक लोगों को आनन्द प्रदान करने वाले प्रतीत होते हैं किन्तु वे वास्तव में दुःखों के कारण हैं। हे कुन्तीपुत्र! ऐसे सुखों का आदि और अंत है इसलिए ज्ञानी पुरुष इनमें आनन्द नहीं लेते।

विस्तृत भावार्थ:
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण इन्द्रियजन्य भोगों की अस्थायी और दुखद प्रकृति का वर्णन कर रहे हैं। वे कहते हैं कि ये भोग, जो इन्द्रियों और विषयों के संपर्क से उत्पन्न होते हैं, केवल क्षणिक सुख देते हैं लेकिन अंततः दुःख ही देते हैं।
- संस्पर्शजा भोग — जब मनुष्य इन्द्रियों के माध्यम से बाह्य विषयों (जैसे स्वाद, स्पर्श, रूप, गंध, ध्वनि) का अनुभव करता है, तो वह क्षणिक सुख अनुभव करता है। लेकिन यह सुख क्षणभंगुर होता है और उसका परिणाम अक्सर असंतोष, आकांक्षा या पीड़ा होता है।
- दुःखयोनय एव ते — इन भोगों की जड़ में ही दुःख समाया होता है। अधिक भोग की इच्छा, उनका न मिलना या समाप्त हो जाना — ये सभी मन को पीड़ा ही देते हैं।
- आद्यन्तवन्तः — ये भोग किसी समय प्रारंभ होते हैं और किसी समय समाप्त हो जाते हैं। जो वस्तु नित्य नहीं है, उस पर निर्भरता आत्मा को निर्बल बनाती है।
- न तेषु रमते बुधः — बुद्धिमान व्यक्ति इन भोगों में नहीं रमते, क्योंकि वे जानते हैं कि ये अंततः शांति को छीन लेते हैं और आत्मा को नीचे गिराते हैं।
दार्शनिक दृष्टिकोण:
- क्षणिक सुख की वास्तविकता:
सुख जिसे हम भोग समझते हैं, वह वास्तव में मन की एक क्षणिक प्रतिक्रिया है। जैसे ही वह विषय समाप्त होता है, मन पुनः खाली और असंतुष्ट हो जाता है। - असली आनंद की खोज:
गीता बार-बार यह सिखाती है कि सच्चा आनंद आत्मा के भीतर है, न कि विषयों में। बाह्य भोग आत्मिक उन्नति के मार्ग में बाधा बनते हैं। - विवेक और संयम:
बुधः — ज्ञानी व्यक्ति विवेक से तय करता है कि किन अनुभवों में लिप्त होना चाहिए और किनसे बचना चाहिए। वह केवल वही ग्रहण करता है जो आत्मविकास में सहायक हो।
प्रतीकात्मक अर्थ:
- संस्पर्शज भोग — बाह्य जगत की मोहक वस्तुएँ (इन्द्रिय-आकर्षण)
- दुःखयोनय — जिनसे अंततः दुःख ही जन्म लेता है, जैसे मोह, आसक्ति, चिंता
- आद्यन्तवंत — जिनकी शुरुआत और समाप्ति है — अर्थात् नश्वर
- बुधः — जो आत्मज्ञान, विवेक और संतुलन में स्थित है
- न रमते — जो बाह्य सुखों में आसक्त नहीं होता, आत्मा में स्थित रहता है
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा:
- इन्द्रिय-सुख सीमित और धोखादेह हैं — वे सच्चा आनंद नहीं दे सकते।
- भोगों की आदत मन को निर्बल बनाती है — और आत्मा को विषयों में बाँध देती है।
- ज्ञानी व्यक्ति विषय-सुख से विरक्त होता है — वह आत्मा में ही शांति खोजता है।
- विवेक और संयम आत्मविकास के मूल तत्व हैं।
- भोगों का त्याग वंचना नहीं, बल्कि आत्म-स्वतंत्रता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न:
क्या मैं इन्द्रिय-सुख की तलाश में जीवन व्यतीत कर रहा हूँ?
क्या मैं बार-बार उन्हीं भोगों की ओर आकर्षित होता हूँ जिनसे अंततः दुःख ही मिला है?
क्या मेरा सुख बाहरी स्थितियों पर निर्भर है?
क्या मैं आत्मिक शांति की खोज कर रहा हूँ या क्षणिक सुख में रमण कर रहा हूँ?
क्या मैं एक बुद्धिमान व्यक्ति की भाँति विवेकपूर्वक जीवन जी रहा हूँ?
निष्कर्ष:
यह श्लोक हमें सिखाता है कि इन्द्रियों द्वारा अनुभव होने वाला सुख मिथ्या है — वह आरंभ तो आनंद से होता है लेकिन अंत दुःख में होता है। बुद्धिमान व्यक्ति इस चक्र को पहचानकर भोगों से विरक्त हो जाता है और आत्मानंद की ओर उन्मुख होता है।
भगवद्गीता का यह श्लोक आत्म-नियंत्रण, विवेक और संयम की सीख देता है। यह हमें प्रोत्साहित करता है कि हम बाह्य विषयों के आकर्षण से स्वयं को मुक्त कर आत्मा की ओर उन्मुख हों — जहाँ शाश्वत आनंद और शांति की अनुभूति होती है।
सच्चा सुख आत्मा में है, विषयों में नहीं।
विवेक ही मोक्ष का पहला द्वार है।
भोगों का परित्याग आत्म-विकास की पहली सीढ़ी है।