Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 5, Sloke 21

मूल श्लोक – 21

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥21॥

शब्दार्थ

  • बाह्यस्पर्शेषु — बाह्य विषयों के संसर्ग में, इंद्रियों के विषयों में
  • असक्तात्मा — जिसका मन (आत्मा) आसक्त नहीं है, जो अनासक्त है
  • विन्दति — प्राप्त करता है, अनुभव करता है
  • आत्मनि — आत्मा में, अपने भीतर
  • यत् सुखम् — जो सुख (आंतरिक, आत्मिक सुख)
  • सः — वह व्यक्ति
  • ब्रह्मयोगयुक्तात्मा — जो ब्रह्म में स्थित है, ब्रह्म के साथ योगयुक्त है
  • सुखम् अक्षयम् — अविनाशी, शाश्वत सुख
  • अश्नुते — प्राप्त करता है, अनुभव करता है

जो बाह्य इन्द्रिय सुखों में आसक्त नहीं होते वे परम आनन्द की अनुभूति करते हैं। भगवान के साथ एकनिष्ठ होने के कारण वे असीम सुख भोगते हैं।

विस्तृत भावार्थ

इस श्लोक में श्रीकृष्ण दो प्रकार के सुखों की तुलना कर रहे हैं — बाह्य (इंद्रियजन्य) और आंतरिक (आत्मिक/ब्रह्मजन्य)। जो व्यक्ति इंद्रियों के विषयों (जैसे रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द) में लिप्त नहीं होता और अपने आत्मा में स्थित रहकर जो सुख प्राप्त करता है, वही सच्चा और शाश्वत सुख है।

यह व्यक्ति ब्रह्मयोग से युक्त होता है — अर्थात् उसका मन ब्रह्म (परमसत्य) में स्थिर होता है। इस स्थिति में व्यक्ति को जो सुख मिलता है, वह अक्षय है — नाशरहित, क्योंकि वह समय, विषय और शरीर से परे होता है।

यह श्लोक संसारिक सुखों की क्षणिकता और आध्यात्मिक सुख की नित्य स्थिति को स्पष्ट करता है। आत्मा में स्थित होकर जो आनंद की अनुभूति होती है, वह ब्रह्मानंद कहलाता है।

दार्शनिक दृष्टिकोण

  • इंद्रिय विषय अस्थायी हैं:
    बाह्य विषयों से जो सुख मिलता है, वह सीमित, अनिश्चित और अंततः दुःखदायी होता है।
  • आत्मा में स्थायी सुख है:
    आत्मा में स्थित व्यक्ति को जो आनंद मिलता है, वह किसी भी बाहरी वस्तु पर निर्भर नहीं होता।
  • ब्रह्मयोग का फल:
    जब आत्मा ब्रह्म से एकाकार होती है, तब व्यक्ति को ऐसा सुख प्राप्त होता है जो संसार के किसी भी सुख से श्रेष्ठ और नित्य होता है।
  • वैराग्य और ध्यान का समन्वय:
    यह श्लोक सिखाता है कि इंद्रियों से वैराग्य और आत्मा में ध्यान — यही ब्रह्मयोग की राह है।

प्रतीकात्मक अर्थ

  • बाह्यस्पर्श — संसार के सभी प्रलोभन और इंद्रियों के विषय
  • असक्तात्मा — योगी, साधक जो अनासक्त है
  • आत्मसुख — वह सुख जो आत्मा के अनुभव से आता है; शांति, आनंद, निर्विकल्प स्थिति
  • ब्रह्मयोगयुक्तात्मा — वह व्यक्ति जो आत्मा और ब्रह्म की एकता को अनुभव करता है
  • सुखम् अक्षयम् — आत्मज्ञान से प्राप्त दिव्य सुख जो कभी समाप्त नहीं होता

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • सच्चा सुख भीतर है:
    जब तक व्यक्ति बाह्य सुखों के पीछे भागता रहेगा, उसे सच्ची शांति नहीं मिलेगी।
  • अनासक्ति का अभ्यास करें:
    इंद्रिय विषयों से अपने मन को हटाकर आत्मा में स्थिर करने का अभ्यास करें।
  • ध्यान और आत्मसाक्षात्कार आवश्यक है:
    ब्रह्मयोग साधना से आत्मा में स्थित होकर शाश्वत आनंद प्राप्त किया जा सकता है।
  • विकारी सुख की जगह निर्विकारी सुख:
    विषय-सुख विकार पैदा करते हैं, जबकि आत्म-सुख शुद्धि और स्थिरता देता है।

आत्मचिंतन के प्रश्न

क्या मेरे सुख का स्रोत बाहरी है या भीतरी?
क्या मैं इंद्रिय विषयों से अनासक्त रह पाता हूँ?
क्या मैं आत्मा में स्थित होकर शांति अनुभव करता हूँ?
क्या मेरा ध्यान ब्रह्म की ओर केंद्रित है?
क्या मैंने ब्रह्मयोग का अभ्यास किया है या केवल बाह्य साधना की है?

निष्कर्ष

यह श्लोक हमें बताता है कि सच्चा और स्थायी सुख बाहर नहीं, आत्मा में है। जब हम इंद्रिय विषयों से हटकर आत्मा में स्थित होते हैं, तभी ब्रह्मयोग की स्थिति आती है। यही ब्रह्मानंद, अक्षय सुख है — जो न समय से बंधा है, न किसी वस्तु से।

भगवद्गीता का यह सन्देश आज के भोगप्रधान युग में अत्यंत प्रासंगिक है — भीतर की यात्रा ही वास्तविक समाधान है

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