मूल श्लोक – 24
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्योतिरेव यः।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥24॥
शब्दार्थ:
- यः — जो व्यक्ति
- अन्तःसुखः — भीतर ही सुख पाने वाला
- अन्तरारामः — अंतर्मन में रमण करने वाला, आत्मा में लीन
- तथा — और
- अन्तर्योतिः — जिसका प्रकाश अंदर से आता है, आंतरिक रूप से प्रकाशित
- एव — निश्चित रूप से
- सः — वही
- योगी — योगी, साधक
- ब्रह्मनिर्वाणम् — ब्रह्म की स्थिति में विलय, मोक्ष
- ब्रह्मभूतः — ब्रह्मस्वरूप बना हुआ
- अधिगच्छति — प्राप्त करता है, प्राप्त होता है
जो अन्तर्मुखी होकर असीम आत्मिक सुख का अनुभव करते हैं वे और आत्मिक प्रकाश से प्रकाशित रहते हैं, ऐसे योगी भगवान में एकीकृत हो जाते हैं और संसार से मुक्त हो जाते हैं।

विस्तृत भावार्थ:
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण उस श्रेष्ठ योगी की महिमा बता रहे हैं जो बाह्य सुखों की बजाय आत्मा के भीतर आनंद का अनुभव करता है।
- अन्तःसुखः — यह वह व्यक्ति है जो भौतिक वस्तुओं या विषयों से सुख नहीं चाहता, बल्कि अपने भीतर की चेतना से ही संतुष्टि प्राप्त करता है।
- अन्तरारामः — यह आत्मा में लीन रहता है, बाहरी गतिविधियों में नहीं फंसता।
- अन्तर्योतिः — उसका प्रकाश, विवेक और आनंद का स्रोत, उसके भीतर ही है। वह बाहरी प्रेरणाओं या प्रशंसाओं से प्रभावित नहीं होता।
ऐसा योगी ब्रह्मभूत बनता है — यानी उसका अहं समाप्त होकर वह ब्रह्म की एकता को प्राप्त करता है। फिर उसे ब्रह्मनिर्वाण, यानी मोक्ष या आत्मा की परम शांति प्राप्त होती है।
दार्शनिक दृष्टिकोण:
- आंतरिक सुख की श्रेष्ठता:
यह श्लोक इस सत्य को स्थापित करता है कि बाह्य सुख क्षणिक होते हैं और असली आनंद आत्मा के भीतर छिपा है। आत्मा का सुख अनादि, अनंत और अपरिवर्तनशील है। - योग की पराकाष्ठा:
योग का अंतिम उद्देश्य केवल आसन या ध्यान नहीं, बल्कि आत्मा और ब्रह्म की एकता है। जब साधक अंतर्मुख होकर आत्मा में स्थिर होता है, तब वह ब्रह्मरूप बनता है। - ब्रह्मनिर्वाण की परिभाषा:
यह स्थिति उस चेतना की है जहाँ द्वैत समाप्त हो जाता है। योगी ब्रह्म में विलीन हो जाता है — न कोई वांछा, न विरोध; केवल शांति और समरसता।
प्रतीकात्मक अर्थ:
- अन्तःसुखः — जो अपने भीतर आत्मसंतोष से परिपूर्ण है
- अन्तरारामः — जो आत्मा में ही लीन रहता है, न बाहर की खोज करता है
- अन्तर्योतिः — आत्मिक प्रकाश में स्थित, आत्मा की ही रोशनी में चलता है
- ब्रह्मभूतः — आत्मसाक्षात्कार द्वारा ब्रह्म में एक रूप हो चुका
- ब्रह्मनिर्वाणम् — मोक्ष, निर्विकल्प समाधि की स्थिति
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा:
- सच्चा आनंद आत्मा में है, बाह्य वस्तुओं में नहीं।
- योग का उद्देश्य आत्मा में स्थित होना है — न कि केवल शारीरिक व्यायाम।
- अंतर्मुखी होना आध्यात्मिक प्रगति की पहली शर्त है।
- ब्रह्मनिर्वाण कोई दैवी चमत्कार नहीं, बल्कि आत्मज्ञान की अंतिम अवस्था है।
- बाहरी चमक-दमक से दूर रहकर भीतर की ज्योति को पहचानना आवश्यक है।
आत्मचिंतन के प्रश्न:
क्या मैं अपने सुख को बाहरी परिस्थितियों पर निर्भर करता हूँ?
क्या मैंने कभी भीतर की आत्मा की शांति को अनुभव किया है?
क्या मेरा ध्यान आत्मा की ओर है या संसार की ओर?
क्या मैं सच्चे योग की दिशा में बढ़ रहा हूँ, या केवल बाह्य दिखावे में उलझा हूँ?
क्या मेरी ज्योति मेरे भीतर से प्रकट हो रही है या मैं दूसरों के प्रकाश की आशा करता हूँ?
निष्कर्ष:
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण आत्मा में स्थित, आत्मप्रकाश से प्रकाशित और आत्मा में ही रमण करने वाले योगी को ब्रह्मनिर्वाण का अधिकारी बताते हैं।
यह श्लोक हमें अंतर्मुखी होकर आत्मा के सत्य को पहचानने और बाह्य भोगों की सीमा से ऊपर उठने की प्रेरणा देता है।
वास्तविक योग वह है जिसमें आत्मा में ही आनंद हो।
ब्रह्म का अनुभव बाह्य साधनों से नहीं, बल्कि भीतर की शुद्धता, स्थिरता और आत्मदर्शन से होता है।
जो भीतर रमण करता है, वही सच्चा योगी है — वही ब्रह्म हो जाता है।