मूल श्लोक – 25
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥25॥
शब्दार्थ
- लभन्ते — प्राप्त करते हैं
- ब्रह्मनिर्वाणम् — ब्रह्म में लीनता, ब्रह्मानंद की प्राप्ति, परम शांति
- ऋषयः — ज्ञानी मुनि, तपस्वी, साक्षात्कारी संत
- क्षीणकल्मषाः — जिनके पाप या दोष नष्ट हो चुके हैं
- छिन्नद्वैधाः — जिनकी शंका या द्वैत भावना नष्ट हो चुकी है
- यतात्मानः — जिनका मन संयमित है, आत्मसंयमी
- सर्वभूतहिते रताः — जो सभी प्राणियों के कल्याण में लगे रहते हैं
वे मनुष्य जिनके पाप समाप्त हो जाते हैं और जिनके संशय मिट जाते हैं और जिनका मन संयमित होता है, वे सभी प्राणियों के कल्याणार्थ कार्य करते हैं। वे भगवान को पा लेते हैं और सांसारिक बंधनों से भी मुक्त हो जाते हैं।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में श्रीकृष्ण ब्रह्मनिर्वाण की प्राप्ति के लिए चार महत्त्वपूर्ण गुण बताते हैं:
- क्षीणकल्मषाः — जिन्होंने अपने पापों और दोषों को तप, आत्मनिरीक्षण, और ज्ञान के द्वारा मिटा दिया है।
- छिन्नद्वैधाः — जो मानसिक द्वैत, भ्रम, संशय और मोह से मुक्त हो चुके हैं।
- यतात्मानः — जिनका मन, इन्द्रियाँ और बुद्धि संयम में हैं।
- सर्वभूतहिते रताः — जो आत्मकल्याण के साथ-साथ परोपकार में रत हैं, सभी जीवों के प्रति करुणा रखते हैं।
इन गुणों से युक्त व्यक्ति ही “ब्रह्मनिर्वाण” को प्राप्त कर सकता है — अर्थात् आत्मा की परम स्थिति, शाश्वत शांति, और ब्रह्म में लीनता।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- ब्रह्मनिर्वाण केवल ध्यान या योग से नहीं मिलता; इसके लिए अंतःकरण की पवित्रता अनिवार्य है।
- क्षीणकल्मष होना दर्शाता है कि आत्मशुद्धि पहली सीढ़ी है।
- छिन्नद्वैध — द्वैत और अद्वैत का दर्शन गीता में महत्त्वपूर्ण है। जब साधक यह भेद मिटा देता है कि ‘मैं’ और ‘दूसरे’, तब वह ब्रह्म की एकता का अनुभव करता है।
- यतात्मा — आत्मसंयम ही उस शांति का द्वार है जिसकी खोज सब करते हैं।
- सर्वभूतहित — निष्काम सेवा और करुणा को गीता में सर्वोच्च आध्यात्मिक मूल्य माना गया है। जब आत्मा केवल अपने सुख से नहीं, बल्कि सबके सुख से जुड़ती है, तभी ब्रह्म में लीन हो सकती है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- ब्रह्मनिर्वाण — आत्मा की परम शांति की अवस्था, जहाँ द्वैत समाप्त हो जाता है।
- ऋषयः — केवल मुनि नहीं, बल्कि वह जो आत्मा के ज्ञान को प्राप्त कर चुका है।
- कल्मष — मन का मलिनपन: राग, द्वेष, मोह, क्रोध
- द्वैध — भ्रम और निर्णय की अनिश्चितता
- यतात्मा — वह जिसने इन्द्रियों को जीत लिया है
- सर्वभूतहित — जो अपनी मुक्ति को जगत के कल्याण से जोड़ देता है
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- आत्मज्ञान से पहले आत्मशुद्धि जरूरी है।
- सच्ची मुक्ति केवल अपने लिए नहीं, सभी के कल्याण में है।
- जो दूसरों के लिए जीता है, वही ब्रह्म से एकाकार होता है।
- संशय और द्वंद्व मन को मोक्ष के मार्ग से विचलित करते हैं।
- संयम और करुणा का मेल ही पूर्ण साधक बनाता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपने भीतर के कल्मषों को पहचान कर उन्हें मिटा रहा हूँ?
क्या मेरी साधना केवल मेरे लिए है या मैं समाज के लिए भी कुछ करता हूँ?
क्या मेरा मन संशय से मुक्त है?
क्या मैं सभी जीवों के प्रति करुणा और सेवा की भावना रखता हूँ?
क्या मेरे जीवन में संयम और परहित एकसाथ उपस्थित हैं?
निष्कर्ष
यह श्लोक हमें दिखाता है कि केवल ध्यान, योग, या प्रवचन ही मुक्ति का मार्ग नहीं हैं।
वास्तव में आत्मशुद्धि, शंका का विनाश, आत्मसंयम और समस्त जीवों के कल्याण की भावना — यही वह चार स्तंभ हैं जिन पर ब्रह्मनिर्वाण की अवस्था टिकी हुई है।
भगवद्गीता इस श्लोक के माध्यम से हमें कर्म, सेवा, संयम और ज्ञान के संतुलन की शिक्षा देती है। जो यह संतुलन साध ले, वही ब्रह्म में विलीन होकर सच्चे सुख को प्राप्त करता है।