Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 5, Sloke 27-28

मूल श्लोक – (27-28)

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥27॥
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥28॥

शब्दार्थ:

श्लोक 27:

  • स्पर्शान् — इन्द्रिय विषयों को
  • कृत्वा बहिः — बाहर स्थित करके
  • बाह्यांश्च — सभी बाहरी वस्तुओं को
  • चक्षुः — दृष्टि
  • च एव अन्तरे भ्रुवोः — दोनों भौंहों के मध्य केन्द्रित करके
  • प्राण-अपानौ — श्वास (प्रवेश) और अपान (निःसरण)
  • समौ कृत्वा — समान कर के
  • नासाभ्यन्तर-चारिणौ — नासिका के भीतर संचरण करनेवाले

श्लोक 28:

  • यत-इन्द्रिय-मन:-बुद्धिः — जिसकी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि संयमित हों
  • मुनिः — विचारशील साधक
  • मोक्ष-परायणः — जिसका अंतिम लक्ष्य मोक्ष हो
  • विगत-इच्छा-भय-क्रोधः — जिसकी इच्छाएँ, भय और क्रोध समाप्त हो गए हों
  • सदा मुक्त एव सः — वह सदा के लिए मुक्त होता है

समस्त बाह्य सुख के विषयों का विचार न कर अपनी दृष्टि को भौहों के बीच में स्थित कर, नासिका में विचरने वाली भीतरी और बाहरी श्वासों के प्रवाह को सम करते हुए इन्द्रिय, मन और बुद्धि को संयमित करके जो ज्ञानी कामनाओं और भय को त्याग देता है, वह सदा के लिए मुक्त हो जाता है।

विस्तृत भावार्थ:

इन दो श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ध्यान की गूढ़ प्रक्रिया और उसके अंतिम परिणाम — आत्ममुक्ति — की व्याख्या करते हैं।

श्लोक 27 ध्यान की बाह्य और आंतरिक विधियों का संक्षिप्त निर्देश देता है। ध्यान के लिए आवश्यक है कि:

  • इन्द्रियाँ विषयों से हटाई जाएँ – बाह्य जगत का त्याग करना पड़ेगा, केवल शरीर से नहीं, मन और बुद्धि से भी।
  • दृष्टि एकाग्र हो – दृष्टि को दोनों भ्रू-मध्य पर केंद्रित करने से ध्यान स्थिर होता है।
  • श्वास पर नियंत्रण हो – प्राण और अपान को समान करने की प्रक्रिया ही प्राणायाम है, जिससे चित्त स्थिर होता है।

श्लोक 28 उस साधक की महिमा बताता है जो इन उपायों द्वारा आत्मसंयम, वैराग्य और विवेक की उच्च अवस्था में स्थित हो जाता है। ऐसा व्यक्ति:

  • इन्द्रियों और चित्त को नियंत्रित कर चुका होता है,
  • मोक्ष को जीवन का लक्ष्य बना चुका होता है,
  • इच्छा, भय और क्रोध — तीनों मानसिक विकारों से पूर्णतः मुक्त होता है।

यह व्यक्ति सदा मुक्त कहलाता है — इसका अर्थ है कि मुक्ति उसकी जीवन की अवस्था बन जाती है, न कि कोई दूर की चीज़।

दार्शनिक दृष्टिकोण:

  1. ध्यान योग का माध्यम है, लक्ष्य आत्मा की मुक्ति।
    ध्यान केवल शारीरिक मुद्रा नहीं, यह इन्द्रियों को नियंत्रित कर अंतर्मुख होने की प्रक्रिया है।
  2. प्राण नियंत्रण — चित्त नियंत्रण का आधार है।
    प्राणायाम से मन और बुद्धि स्थिर होते हैं।
  3. मुक्ति कोई कालान्तर की दशा नहीं — यह वर्तमान क्षण में उपलब्ध हो सकती है।
  4. इच्छा, भय, और क्रोध — ये तीनों आत्मा को संसार में बाँधते हैं।
    इनसे मुक्त होना ही पूर्ण योग है।

प्रतीकात्मक अर्थ:

  • स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्च — इन्द्रियाँ केवल सूचना के साधन हैं, पर नियंत्रण अनिवार्य है।
  • चक्षुः च एव अन्तरे भ्रुवोः — भ्रूमध्य दृष्टि एकाग्रता का प्रतीक है — यह आज्ञा चक्र की जाग्रति का संकेत है।
  • प्राणापान समौ कृत्वा — जीवन-शक्ति का संतुलन, जिससे आत्मा के साथ जुड़ाव सम्भव होता है।
  • विगत-इच्छा-भय-क्रोधः — जब ये समाप्त हो जाते हैं, तब ही सच्चा आत्मज्ञान संभव है।
  • सदा मुक्त एव सः — वह व्यक्ति जीते जी मुक्त है, उसे मृत्यु से कोई भय नहीं।

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा:

  • ध्यान योग केवल मुद्रा नहीं, आंतरिक नियंत्रण है।
  • मुक्ति भीतर की दशा है — न किसी स्वर्ग में, न किसी भविष्य में।
  • मन और इन्द्रियाँ जितनी स्थिर होंगी, उतना ही परमात्मा के करीब जाना संभव होगा।
  • प्राणायाम केवल श्वास की प्रक्रिया नहीं, आत्मा के साथ पुनः संपर्क की विधि है।
  • मोक्ष कोई पलायन नहीं, आत्म-साक्षात्कार की अंतिम अवस्था है।

आत्मचिंतन के प्रश्न:

क्या मैं अपने मन और इन्द्रियों को नियंत्रण में रख पाता हूँ?
क्या मैं नित्य ध्यान करता हूँ और प्राण को संतुलित करता हूँ?
क्या मेरी दृष्टि जीवन के बाह्य रूपों से हटकर आंतरिक सत्य पर केंद्रित है?
क्या मैं अभी भी इच्छाओं, भय और क्रोध से संचालित होता हूँ?
क्या मैं मोक्ष को केवल एक धारणा मानता हूँ या जीवन का उद्देश्य?

निष्कर्ष:

भगवद्गीता के ये दो श्लोक ध्यान योग और आत्ममुक्ति के मार्ग को सरल, परंतु गहराई से प्रस्तुत करते हैं।
वे बताते हैं कि मुक्ति कोई रहस्यमयी प्रक्रिया नहीं, बल्कि संयम, ध्यान और आत्मचिंतन का फल है।

जो इन्द्रियों, मन, और बुद्धि को स्थिर करता है, जो भीतर की दृष्टि से जीवन को देखता है, जो श्वास पर नियंत्रण रखता है, और इच्छाओं, भय तथा क्रोध से मुक्त हो जाता है — वही योगी है, वही मुनि है, और वही सदा मुक्त है।

ध्यान के माध्यम से ही आत्मा, ब्रह्म से एकाकार हो सकती है — यही गीता का सार है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *