मूल श्लोक – 29
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥29॥
शब्दार्थ
- भोक्तारम् — उपभोग करने वाला, फल प्राप्त करने वाला
- यज्ञ — यज्ञ, कर्म, सेवा
- तपसां — तप, आत्मसंयम और साधना
- सर्वलोक — समस्त लोकों का
- महेश्वरम् — महान ईश्वर, परमेश्वर
- सुहृदम् — सच्चा मित्र, हितैषी
- सर्वभूतानाम् — सभी प्राणियों का
- ज्ञात्वा — जानकर, समझकर
- माम् — मुझे (भगवान श्रीकृष्ण)
- शान्तिम् — शांति
- ऋच्छति — प्राप्त करता है
जो भक्त मुझे समस्त यज्ञों और तपस्याओं का भोक्ता, समस्त लोकों का स्वामी और सभी प्राणियों का सच्चा हितैषी समझते हैं, वे परम शांति प्राप्त करते हैं।

विस्तृत भावार्थ
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में संसार के तीन महत्वपूर्ण सत्य प्रकट करते हैं:
- मैं ही समस्त यज्ञ और तप का भोक्ता हूँ — जो भी कर्म, यज्ञ या तप होता है, उसका अंतिम फल परमात्मा को समर्पित होता है।
- मैं समस्त लोकों का स्वामी हूँ — इस सम्पूर्ण जगत की सत्ता एक ही महेश्वर के अधीन है।
- मैं सभी प्राणियों का हितैषी हूँ — परमात्मा न केवल ईश्वर हैं, बल्कि हर जीव के सच्चे हितैषी भी हैं।
जब कोई साधक इन तीन तथ्यों को हृदय से स्वीकार कर लेता है, तब वह संपूर्ण द्वंद्व, भ्रम और असुरक्षा से मुक्त हो जाता है। और इस ज्ञान के साथ जो आत्म-समर्पण होता है, वही उसे शान्ति प्रदान करता है — बाहरी भी और आंतरिक भी।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- यह श्लोक भक्तियोग और ज्ञानयोग का संगम है।
- परम शांति आत्म-समर्पण से प्राप्त होती है, अधिकार के दावे से नहीं।
- व्यक्ति जब जान लेता है कि भगवान ही सभी कर्मों के फलदाता हैं, वह स्वयं फल की चिंता से मुक्त हो जाता है।
- जब यह बोध हो जाए कि भगवान ही सबके सच्चे मित्र हैं, तब द्वेष, क्रोध, और भय समाप्त हो जाते हैं।
- ईश्वर के प्रति यह सच्चा भाव (प्रेम, विश्वास और समर्पण) ही मोक्ष की कुंजी है।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द | प्रतीकात्मक अर्थ |
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भोक्ता | जो हमारे जीवन के हर कर्म का साक्षी और परिणामदाता है |
यज्ञ | निस्वार्थ कर्म और सेवा |
तप | आत्मसंयम और आत्मानुशासन |
महेश्वर | परमशक्ति, संपूर्ण सृष्टि का नियंत्रण रखने वाला |
सुहृद | ऐसा सखा जो निस्वार्थ, निःस्वार्थ हितकारी होता है |
शान्ति | मानसिक, आत्मिक और आध्यात्मिक संतुलन व शांति |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- कर्तापन का अभिमान छोड़ दो, केवल समर्पण ही शांति की कुंजी है।
- भगवान को केवल न्यायाधीश न मानो, उन्हें सुहृद – सखा, सहायक और प्रेममय सान्निध्य भी मानो।
- संसार की व्यवस्था में जो समर्पण है, वही मुक्ति है।
- हर यज्ञ (कर्म) और तप (साधना) का अंतिम लक्ष्य भगवान ही हैं।
- जो इस सच्चाई को जान लेता है, वह संसार में रहते हुए भी भीतर से शांत रहता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं अपने सभी कर्मों को भगवान को समर्पित करता हूँ?
क्या मुझे यह विश्वास है कि भगवान मेरे जीवन के सच्चे मित्र हैं?
क्या मैं अभी भी कर्म के फल की चिंता करता हूँ, या उसे प्रभु पर छोड़ पाया हूँ?
क्या मेरी तपस्या और साधना किसी अपेक्षा से प्रेरित है, या प्रेमभाव से?
क्या मेरी शांति बाहरी परिस्थितियों पर निर्भर है, या परमात्मा के ज्ञान पर?
निष्कर्ष
यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के पूरे दर्शन का सार है।
भगवान श्रीकृष्ण यह स्पष्ट कर रहे हैं कि:
- समर्पण,
- विश्वास,
- प्रेम,
- और समझ —
ये ही शांति की ओर ले जाते हैं।
जब मनुष्य यह स्वीकार कर लेता है कि भगवान ही सब कुछ हैं — हमारे कर्मों के भोक्ता, जगत के स्वामी, और हमारे सच्चे हितैषी — तब वह भीतर से हल्का, मुक्त और शांत हो जाता है।
यह आत्मा और परमात्मा के मिलन का आनंद है — जहाँ कोई प्रश्न नहीं, कोई मांग नहीं, केवल शुद्ध शांति है।