मूल श्लोक – 14
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥14॥
शब्दार्थ
प्रशान्तात्मा — शांत आत्मा वाला, जिसका मन शांत हो गया है
विगतभीः — भय से रहित
ब्रह्मचारीव्रते स्थितः — ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाला
मनः संयम्य — मन को संयमित करके
मच्चित्तः — मेरे में चित्त लगाकर, भगवान श्रीकृष्ण में मन लगाकर
युक्तः — योगयुक्त, एकाग्र
आसीत — बैठे
मत्परः — मुझे ही परम लक्ष्य मानने वाला
इस प्रकार शांत, भयरहित और अविचलित मन से ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा में निष्ठ होकर उस प्रबुद्ध योगी को मन से मेरा चिन्तन करना और केवल मुझे ही अपना परम लक्ष्य बनाना चाहिए।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण एक योगी की उच्च अवस्था का चित्र प्रस्तुत करते हैं। यह ध्यान की वह स्थिति है जहाँ साधक पूर्ण संयम, समर्पण और आंतरिक स्थिरता के साथ आत्मशुद्धि और परमात्मा से एकत्व की ओर अग्रसर होता है।
प्रशान्तात्मा – वह योगी जिसकी आत्मा शांत हो चुकी है, जो मानसिक द्वंद्वों और कामनाओं से मुक्त हो गया है।
विगतभीः – जिसने भय को जीत लिया है, क्योंकि जहाँ आत्मज्ञान होता है, वहाँ भय नहीं रहता।
ब्रह्मचारिव्रते स्थितः – जीवन में ब्रह्मचर्य का पालन न केवल शारीरिक संयम है, बल्कि मन, वाणी और व्यवहार में भी शुद्धता और ईश्वरनिष्ठा है।
मनः संयम्य – मन को इन्द्रियों से हटाकर आत्मा और ईश्वर में स्थिर करना।
मच्चित्तः – भगवान श्रीकृष्ण में मन को पूरी तरह स्थिर कर देना।
युक्तः – ऐसा व्यक्ति योग में स्थित होता है — न केवल ध्यान के समय, बल्कि जीवन के हर क्षण में।
मत्परः – जो ईश्वर को ही परम लक्ष्य मानता है, न कि किसी भौतिक उपलब्धि को।
यह श्लोक ध्यानयोग का पूर्ण आंतरिक स्वरूप दर्शाता है — जब साधक की दृष्टि, प्रवृत्ति और चेतना पूरी तरह ईश्वरमय हो जाती है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- ध्यान की सिद्धि केवल क्रिया से नहीं होती, बल्कि जीवन की शुद्धता, साहस, संयम और समर्पण से होती है।
- ब्रह्मचर्य केवल देह-नियंत्रण नहीं, बल्कि विचार और व्यवहार की पवित्रता भी है।
- प्रशान्तता केवल बाहर की चुप्पी नहीं, बल्कि भीतर के द्वंद्वों का शांत हो जाना है।
- विगतभी वह होता है जो आत्मा को जान चुका है — मृत्यु, अपमान, हानि आदि अब उसे विचलित नहीं करते।
- जब साधक परमात्मा को ही जीवन का उद्देश्य बना लेता है (मत्परः), तब ही वह वास्तविक योगी बनता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द | प्रतीकात्मक अर्थ |
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प्रशान्तात्मा | मनोमुक्त अवस्था, जहाँ राग-द्वेष, क्रोध-लोभ शांत हो गए हों |
विगतभीः | मृत्यु, असफलता, भविष्य आदि से पूर्ण निर्भयता |
ब्रह्मचारिव्रत | इन्द्रिय संयम, भावनात्मक शुद्धता और लक्ष्य की पवित्रता |
मनः संयम्य | ध्यानपूर्वक चित्त का नियंत्रण और एकाग्रता |
मच्चित्तः | ईश्वर में मन का पूर्ण स्थिरीकरण |
मत्परः | लक्ष्य केवल परमात्मा है, और कुछ नहीं |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- योग केवल आसन और प्राणायाम नहीं, यह जीवन की पूर्ण पवित्रता और समर्पण है।
- भय से मुक्ति आत्मज्ञान की निशानी है।
- ब्रह्मचर्य केवल व्रत नहीं, बल्कि आत्मा की पवित्रता के लिए अपनाया गया मार्ग है।
- चित्त की एकाग्रता तभी संभव है जब मन संयमित हो और लक्ष्य स्पष्ट हो।
- जब साधक केवल ईश्वर को ही अंतिम उद्देश्य मानता है, तभी वह सच्चे ध्यान में प्रविष्ट हो सकता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं अपने मन को शांत और संयमित रखने में सफल हूँ?
- क्या मेरे भीतर किसी भी प्रकार का भय शेष है?
- क्या मेरा जीवन ब्रह्मचर्यव्रत की भावना से संचालित है?
- क्या मेरा मन संसार में भटकता है, या ईश्वर में स्थिर होता है?
- क्या ईश्वर ही मेरे जीवन का अंतिम लक्ष्य है, या कोई भौतिक उद्देश्य?
- क्या मेरा योग केवल अभ्यास तक सीमित है, या जीवन का अंग बन चुका है?
निष्कर्ष
भगवद्गीता के इस श्लोक में ध्यानयोग की सारभूत अवस्था को वर्णित किया गया है।
सच्चा योगी वह है जो शांतचित्त है, निर्भय है, संयमी है, और जिसने अपने चित्त को पूर्णतः ईश्वर में स्थिर कर लिया है।
ध्यान केवल अभ्यास नहीं, बल्कि एक पूर्ण समर्पण है — जीवन की हर श्वास ईश्वर को समर्पित।
श्रीकृष्ण हमें बताते हैं कि जब तक भय, अशांति, असंयम, और उद्देश्य की अस्पष्टता बनी रहेगी, तब तक योग में स्थिरता नहीं आ सकती।
लेकिन जब साधक ईश्वर को ही अपने जीवन का केंद्र बना लेता है, तब वह युक्त, मत्पर, और प्रशान्तात्मा होकर परम शांति का अनुभव करता है।
यही है — आत्मा से परमात्मा की ओर यात्रा का सच्चा मार्ग।