मूल श्लोक – 15
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥15॥
शब्दार्थ
- युञ्जन् — योग में लगा हुआ, साधना करता हुआ
- एवम् — इस प्रकार, जैसा पूर्व में बताया गया
- सदा आत्मानम् — सदा अपने चित्त को (आत्मा को)
- योगी — योगाभ्यासी, साधक
- नियतमानसः — जिसका मन नियंत्रित है, अनुशासित चित्त वाला
- शान्तिम् — शांति
- निर्वाण-परमाम् — परम निर्वाण, परम मुक्ति
- मत्संस्थाम् — मुझमें स्थित (भगवद्स्वरूप में)
- अधिगच्छति — प्राप्त करता है
इस प्रकार मन को संयमित रखने वाला योगी मन को निरन्तर मुझमें तल्लीन कर निर्वाण प्राप्त करता है और मुझे में स्थित होकर परम शांति पाता है।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ध्यानयोग की प्रक्रिया के फलस्वरूप मिलने वाली परम शांति और भगवत्स्थिति की बात करते हैं।
इस श्लोक में ध्यान का फल तीन प्रमुख रूपों में बताया गया है:
- नियतमानसः — साधक का मन पूर्णतः संयमित हो जाता है।
- वह चंचलता और वासनाओं से मुक्त हो चुका होता है।
- मन अब साधना के पथ से विचलित नहीं होता।
- शान्तिं निर्वाणपरमाम् — वह साधक परम शांति प्राप्त करता है, जिसे निर्वाण कहते हैं।
- यह केवल मानसिक शांति नहीं, बल्कि मुक्ति की परम स्थिति है।
- जहाँ न इच्छाएँ हैं, न द्वंद्व, न भय, न दुख — केवल स्थिर आत्मा की अनंत शांति है।
- मत्संस्थामधिगच्छति — अंततः वह भगवद्स्वरूप में स्थित होता है।
- यह साधक परमात्मा के साथ एकाकार हो जाता है।
- यहाँ “मत्संस्थाम्” का अर्थ है — वह स्थिति जहाँ जीव और परमात्मा में भेद नहीं रहता।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- यह श्लोक बताता है कि योग केवल मानसिक अभ्यास नहीं, वह आत्मिक विकास का मार्ग है जो अंततः भगवत्स्थिति तक ले जाता है।
- निर्वाण — बौद्ध और वैदिक दोनों दर्शन में मुक्ति की उच्चतम अवस्था मानी जाती है।
- श्रीकृष्ण यहाँ कह रहे हैं कि वह निर्वाण भी ईश्वर से एकात्मता में परिणत होता है — यही “मत्संस्था” है।
- जब साधक अनवरत अभ्यास (सदा युञ्जन्) के माध्यम से मन को संयमित करता है, तो वह साधन से साध्य में प्रवेश करता है — योगी से भगवत्स्वरूप में।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द / वाक्यांश | प्रतीकात्मक अर्थ |
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युञ्जन् सदा आत्मानं | निरंतर आत्म-चिंतन और साधना में लगा हुआ योगी |
नियतमानसः | जो वासनाओं और चंचलता से मुक्त होकर एकाग्र हो गया है |
शान्तिं निर्वाणपरमाम् | केवल बाहरी शांति नहीं, बल्कि संपूर्ण अस्तित्व का परम समाधान — मोक्ष |
मत्संस्थाम् | भगवद्स्वरूप की स्थिति, परमात्मा में आत्मा का विलय |
अधिगच्छति | अनुभव के स्तर पर प्राप्त करना, ज्ञान से आगे, प्रत्यक्ष सत्य का अनुभव |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- ध्यान और योग का उद्देश्य केवल शांति नहीं, परमात्मा की स्थिति को पाना है।
- योग में निरंतरता आवश्यक है — “सदा” अभ्यास से ही सिद्धि आती है।
- मन का संयम ही योग का प्रथम और अंतिम द्वार है।
- निर्वाण कोई नकारात्मक शून्यता नहीं, बल्कि परमात्मा में स्थित सकारात्मक पूर्णता है।
- साधना का अंतिम लक्ष्य केवल मोक्ष नहीं, ईश्वर में समाहित हो जाना है — यही “मत्संस्था” है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं अपनी साधना को निरंतर, नियमित और श्रद्धा से करता हूँ?
- क्या मेरा मन संयमित है, या अभी भी इंद्रियों के पीछे भागता है?
- क्या मुझे ध्यान से केवल मानसिक शांति चाहिए, या मैं आत्मिक समाधान चाहता हूँ?
- क्या मैंने ध्यान को भगवत्साक्षात्कार का साधन माना है, या केवल विश्रांति का उपाय?
- क्या मेरी साधना मुझे “मैं” से मुक्त कर “वह” में स्थित करती है?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि सतत साधना, मन का संयम, और ध्यान की स्थिरता ही उस योगी को निर्वाण और अंततः भगवत्स्थिति प्रदान करते हैं।
“जब साधना निरंतर होती है, और मन पूर्णतः संयमित हो जाता है — तब योगी केवल मुक्त नहीं होता, वह स्वयं भगवत्स्वरूप बन जाता है।”
यह श्लोक योग की चरम उपलब्धि को दर्शाता है —
मुक्ति + एकत्व = परम शांति।
यह योग की यात्रा का अंतिम लक्ष्य है —
जहाँ साधक और साध्य में भेद नहीं रहता, केवल “मैं और तू” का अंत होता है।
वह अवस्था है — मत्संस्था — भगवान में सच्ची स्थिति।