मूल श्लोक – 16
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥16॥
शब्दार्थ
न — नहीं
अत्यश्नतः — बहुत अधिक खाने वाले के लिए
योगः — योग, ध्यान
अस्ति — संभव है, होता है
न च — और नहीं
एकान्तम् अनश्नतः — जो अत्यधिक उपवास करता है
न च — और नहीं
अति स्वप्नशीलस्य — जो अत्यधिक सोता है
जाग्रतः — जो सदैव जागता (नींद नहीं लेता) है
नैव — नहीं भी
अर्जुन — हे अर्जुन!
हे अर्जुन! जो लोग बहुत अधिक भोजन ग्रहण करते हैं या अल्प भोजन ग्रहण करते हैं, बहुत अधिक या कम नींद लेते हैं, वे योग में सफल नहीं हो सकते।

विस्तृत भावार्थ
भगवान श्रीकृष्ण यहाँ एक बहुत ही व्यावहारिक और गूढ़ सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं – मध्यमार्ग (Balance)।
योग केवल मानसिक या आत्मिक ही नहीं, शारीरिक संतुलन की भी अपेक्षा करता है। अतः साधक के लिए यह ज़रूरी है कि वह अपने शरीर और जीवन-शैली में संतुलन बनाए रखे। इस श्लोक में चार अतियों से सावधान किया गया है:
- अत्यश्नतः – जो बहुत अधिक खाता है: इससे आलस्य, निद्रा, और मन की चंचलता बढ़ती है, जिससे ध्यान में स्थिरता नहीं आती।
- अनश्नतः – जो कुछ खाता ही नहीं: अत्यधिक उपवास शरीर को दुर्बल करता है और मन चिड़चिड़ा हो जाता है।
- अति स्वप्नशीलस्य – जो आवश्यकता से अधिक सोता है: इससे चेतना मंद होती है, जिससे आत्म-जागरण असंभव हो जाता है।
- जाग्रतः – जो पूरी तरह नींद त्याग देता है: इससे शरीर थकान से ग्रसित होता है और मन भ्रमित हो जाता है।
इन सभी अतियों में संतुलन की आवश्यकता है। तभी साधक का चित्त स्थिर रह सकता है और वह योग की सिद्धि की ओर बढ़ सकता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- योग एक जीवन प्रणाली (Lifestyle) है, न कि केवल एक साधना-पद्धति।
- भगवद्गीता बार-बार “युक्त आहार, युक्त विहार” की संकल्पना देती है।
- अतियों में उलझा मन स्थिर नहीं हो सकता। संतुलन ही चित्त को एकाग्र करता है।
- शरीर, मन और आत्मा — तीनों का समन्वय ही सच्चा योग है।
- यह श्लोक हमें बताता है कि “साधना तभी सफल होती है जब जीवन संतुलित होता है।”
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द | प्रतीकात्मक अर्थ |
---|---|
अत्यश्नतः | अतिरंजित भोग-विलास की प्रवृत्ति |
अनश्नतः | अतिशय तप या आत्मदमन |
अति स्वप्नशीलस्य | आलस्य, प्रमाद |
जाग्रतः | शरीर और मन को कष्ट देना, अधैर्य |
योगः | शरीर, मन और आत्मा की समरसता में संतुलनपूर्ण साधना |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- संतुलित जीवन ही योग का मूल आधार है।
- आत्मशुद्धि के लिए शरीर की देखभाल और संयम आवश्यक है।
- हर अतिशयता – चाहे वह भोग की हो या त्याग की – अंततः साधना में बाधा बनती है।
- नींद और आहार दोनों का संतुलन ध्यान की गहराई को प्रभावित करता है।
- एक सच्चा योगी अपने दैनिक जीवन को भी संयम, शुद्धता और नियमितता से संचालित करता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं अपने आहार और दिनचर्या में संतुलन बनाए रखता हूँ?
- क्या मेरी साधना शरीर को हानि तो नहीं पहुँचा रही?
- क्या मैं कभी अतिशय उपवास या अतिशय भोग में लिप्त होता हूँ?
- क्या मैं सोने और जागने की प्राकृतिक लय के अनुसार चलता हूँ?
- क्या मेरी साधना एक थकान या एक नवीन ऊर्जा का स्रोत बनती है?
निष्कर्ष
भगवद्गीता के इस श्लोक में योग के व्यवहारिक और संतुलित दृष्टिकोण को स्पष्ट किया गया है।
श्रीकृष्ण यह बताते हैं कि “संयम, अनुशासन और संतुलन” ही योग की पहली शर्त है।
अत्यधिक खाने, सोने, जागने या उपवास करने से मन विचलित होता है।
स्थिर मन वही पाता है जो जीवन में भी स्थिर और संतुलित होता है।
योग का अर्थ है –
ना बहुत ज़्यादा लेना, ना बहुत ज़्यादा छोड़ना।
ना अत्यधिक भोग, ना अत्यधिक तप।
बल्कि वह मध्यम मार्ग है जो शरीर, मन और आत्मा — तीनों को एक लय में लाता है।
यही स्थिरता, यही शांति — योग की सिद्धि है।