Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 6, Sloke 25

मूल श्लोक – 25

शनैः शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥25॥

शब्दार्थ

  • शनैः शनैः — धीरे-धीरे, क्रमशः
  • उपरमेत् — विराम पाए, शांत हो जाए
  • बुद्ध्या — बुद्धि के द्वारा
  • धृति-गृहीतया — धैर्य से नियंत्रित, धारण की गई
  • आत्मसंस्थम् — आत्मा में स्थित (स्थिर)
  • मनः कृत्वा — मन को केंद्रित करके
  • न किञ्चित् अपि चिन्तयेत् — कुछ भी न सोचे

फिर धीरे-धीरे निश्चयात्मक बुद्धि के साथ मन केवल भगवान में स्थिर हो जाएगा और भगवान के अतिरिक्त कुछ नहीं सोचेगा।

विस्तृत भावार्थ

इस श्लोक में श्रीकृष्ण ध्यान की गहनतम प्रक्रिया को स्पष्ट कर रहे हैं। यहाँ उन्होंने ध्यान की सूक्ष्म और व्यावहारिक विधि दी है — कैसे मन को स्थिर किया जाए।

आइए चरणबद्ध समझें:

  1. “शनैः शनैः उपरमेत्”
    • ध्यान की अवस्था अचानक नहीं आती।
    • यह एक क्रमिक प्रक्रिया है जिसमें मन को धीरे-धीरे विषयों से हटाना होता है।
    • साधना में धैर्य अनिवार्य है।
  2. “बुद्ध्या धृतिगृहीतया”
    • केवल भावना या प्रेरणा से नहीं, बल्कि स्थिर बुद्धि और धैर्य से मन को संयमित करना होता है।
    • यह एक प्रेरणात्मक नहीं बल्कि विवेकपूर्ण प्रक्रिया है।
  3. “आत्मसंस्थं मनः कृत्वा”
    • मन को आत्मा में स्थित करना — इसका अर्थ है:
      • मन को इंद्रियों से हटाकर
      • विषयों से दूर कर
      • आत्मा के स्वरूप में टिकाना
    • यह एकाग्रता नहीं, बल्कि आत्म-स्थिति है।
  4. “न किञ्चिदपि चिन्तयेत्”
    • जब मन आत्मा में स्थित हो जाए, तो कोई भी विचार न रहे
    • न इच्छा, न भय, न कल्पना — पूर्ण विचार-शून्यता, जिसे ध्यान की समाधि अवस्था कहते हैं।

दार्शनिक दृष्टिकोण

  • ध्यान कोई बलपूर्वक किया गया मानसिक प्रयास नहीं है, यह बुद्धि और धैर्य से सधे हुए मन की अवस्था है।
  • श्रीकृष्ण यहां बताना चाहते हैं कि मन को दबाया नहीं जाता, बल्कि धीरे-धीरे समझाकर आत्मा की ओर मोड़ा जाता है।
  • जिस प्रकार बहती नदी को रोकने के लिए बाँध धीरे-धीरे खड़ा किया जाता है, वैसे ही ध्यान में भी मन का संचालन धैर्यपूर्वक होता है।

यह श्लोक “योग = चित्तवृत्ति निरोध” का व्यावहारिक संस्करण है।

प्रतीकात्मक अर्थ

शब्द / वाक्यांशप्रतीकात्मक अर्थ
शनैः शनैःसाधना में उतावलेपन की जगह संयम और निरंतरता
धृतिगृहीता बुद्धिविवेकयुक्त, दृढ़, अडोल मानसिक दृष्टि
आत्मसंस्थ मनःमन को विषयों से हटा कर आत्मा में टिकाना
न किञ्चिदपि चिन्तयेत्विचारों का पूर्ण निरोध, मानसिक मौन, विचार-शून्यता

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • ध्यान में गति नहीं, बल्कि स्थिरता और गहराई आवश्यक है।
  • जो साधक धीरे-धीरे अपने मन को आत्मा में स्थिर करता है, वह विचारों की हलचल से मुक्त हो जाता है
  • बुद्धि और धैर्य — यही ध्यान के दो आधारस्तंभ हैं।
  • “कुछ भी न सोचना” का अर्थ है — पूर्ण समर्पण और अंतर्मुखी मौन।
  • यही मौन अंततः आत्मा के प्रकाश को प्रकट करता है।

आत्मचिंतन के प्रश्न

  • क्या मैं ध्यान में उतावलापन करता हूँ, या धीरे-धीरे मन को साधता हूँ?
  • क्या मेरी बुद्धि दृढ़ और नियंत्रित है, या वह विषयों की ओर भागती रहती है?
  • क्या मेरा मन आत्मा में स्थित होता है, या बाहर के विचारों में उलझा रहता है?
  • क्या मैं ध्यान में विचारशून्यता का अनुभव कर पाया हूँ?
  • क्या मैं धैर्य के साथ साधना करता हूँ, या थोड़े प्रयास में हताश हो जाता हूँ?

निष्कर्ष

यह श्लोक ध्यान की प्रक्रिया का सार बताता है:

“मन को धीरे-धीरे आत्मा में टिकाओ,
बुद्धि को धैर्य से नियंत्रित करो,
और विचारों से मुक्त हो जाओ —
यही है ध्यान, यही है योग।”

शुद्ध ध्यान = शनैः शनैः + धृतिगृहीता बुद्धि + आत्मसंस्थ मन + चिन्ताशून्यता
जब यह समन्वय बन जाता है, तब साधक परम आत्मिक अनुभव की ओर बढ़ता है।

यह है ध्यान की परिपक्व अवस्था —
जहाँ न कोई चित्त की चंचलता है, न विचारों की हलचल —
केवल आत्मा का मौन प्रकाश।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *