मूल श्लोक – 27
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतकल्मषम् ॥27॥
शब्दार्थ
- प्रशान्त-मनसं — जिसका मन पूर्णतः शांत हो गया है
- हि एनं — वास्तव में इस (योगी) को
- योगिनम् — योग में स्थित साधक को
- सुखम् उत्तमम् — परम श्रेष्ठ आनंद
- उपैति — प्राप्त होता है
- शान्त-रजसम् — जिसके भीतर रजोगुण शांत हो चुका है
- ब्रह्मभूत-कल्मषम् — जो ब्रह्म रूप में स्थित होकर समस्त पापों से मुक्त हो गया है
जिस योगी का मन शांत हो जाता है और जिसकी वासनाएँ वश में हो जाती हैं एवं जो निष्पाप है तथा जो प्रत्येक वस्तु का संबंध भगवान के साथ जोड़कर देखता है, उसे अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ध्यान योग के उस फलस्वरूप की व्याख्या कर रहे हैं जो एक सिद्ध योगी को प्राप्त होता है।
यह फल है — परम आनंद की प्राप्ति।
आइए इस स्थिति को समझें:
- प्रशान्तमनसं —
- मन अब चंचल नहीं रहा।
- न कोई वासना, न कोई द्वेष, न कोई विचार की उथल-पुथल।
- यह पूर्ण मनोनिग्रह की अवस्था है।
- शान्त-रजसम् —
- रजोगुण अर्थात् क्रिया, कामना, स्पर्धा और अस्थिरता का गुण।
- जब यह शांत हो जाता है, तब साधक का चित्त स्थिर, निश्चल और गहराई से शांत हो जाता है।
- क्रिया से निर्विकल्प शांति की ओर यात्रा।
- ब्रह्मभूत-कल्मषम् —
- अब योगी ब्रह्म में स्थित हो गया है — वह आत्मा और परमात्मा के भेद से परे चला गया है।
- इस स्थिति में पहुंचकर वह सभी कर्मजन्य पापों और मानसिक कल्मषों से मुक्त हो जाता है।
- शुद्धता, ब्रह्म की चेतना में स्थापित होना।
- सुखम् उत्तमम् उपैति —
- और तब उसे वह सुख प्राप्त होता है जो इंद्रियों से परे, चिरस्थायी, और अवर्णनीय होता है।
- इसे “परमानंद”, “निर्वाणसुख”, “ब्रह्मानंद” या “शुद्ध आत्मसुख” कहा गया है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- यह श्लोक योग की परिणति को दिखाता है — जहाँ साधक की साधना फलवती हो जाती है।
- जब रजोगुण समाप्त हो जाते हैं, और मन पूर्ण शांति में डूब जाता है, तब व्यक्ति अपने शुद्ध अस्तित्व, अर्थात ब्रह्मस्वरूप को पहचान लेता है।
- यह स्थिति किसी भी सांसारिक उपलब्धि से श्रेष्ठ है।
- यह जीव से ब्रह्म की यात्रा का अंतिम मुकाम है — जहाँ कुछ भी कहना बाकी नहीं रहता।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द / वाक्यांश | प्रतीकात्मक अर्थ |
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प्रशान्त-मन | इंद्रियों, वासनाओं और द्वंद्वों से मुक्त चित्त |
शान्त-रजस | क्रियात्मक स्पंदनों का अंत, शांति में प्रतिष्ठा |
ब्रह्मभूत | ब्रह्म में स्थित, अहंकार और देहबुद्धि से परे |
कल्मष | पाप, दोष, अशुद्ध संस्कार |
सुखम् उत्तमम् | आत्मानुभव द्वारा प्राप्त परम शांति और आनंद |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- योग का उद्देश्य केवल मन की शांति नहीं, बल्कि ब्रह्म में स्थित होकर परम सुख की प्राप्ति है।
- रजोगुण शांत हो जाने पर साधक कर्मबंधन से भी मुक्त हो जाता है।
- साधना का यह चरम स्वरूप — आत्मा और परमात्मा की एकता — ही वास्तविक मोक्ष है।
- बाहरी संसार में कार्य करते हुए भी, यदि मन शांत और रजोगुण से रहित हो जाए, तो वहीं ब्रह्मानंद की प्राप्ति संभव है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मेरा मन चंचल है, या शांत होने की ओर अग्रसर है?
- क्या मैं रजोगुण — क्रिया, कामना, दौड़ — से मुक्त हो पाया हूँ?
- क्या मेरी साधना मुझे ब्रह्म की ओर ले जा रही है, या केवल शांति तक सीमित है?
- क्या मैंने कभी ऐसा सुख अनुभव किया है जो इंद्रियों से परे और भीतर से उठता हो?
- क्या मेरा जीवन “प्रशान्तमनस” और “शान्तरजस” की दिशा में विकसित हो रहा है?
निष्कर्ष
यह श्लोक स्पष्ट करता है कि ध्यानयोग का अंतिम फल है —
“परम शांति और परम आनंद की प्राप्ति —
तब जब मन पूर्णतः शांत हो जाए,
रजोगुण समाप्त हो जाए,
और साधक ब्रह्म में स्थित होकर समस्त पापों से मुक्त हो जाए।”
यह स्थिति ही जीवन का परम लक्ष्य है —
जहाँ कुछ भी पाने को शेष नहीं रहता,
केवल शुद्ध अनुभव — शुद्ध आनंद — शुद्ध ब्रह्म।
यही है योग का पूर्ण फल —
प्रशान्त मन + शांत गुण + ब्रह्म चेतना = परम आनंद।