मूल श्लोक – 3
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥3॥
शब्दार्थ
- आरुरुक्षोः — जो चढ़ना चाहता है, जो आरूढ़ होना चाहता है
- मुनेः — मुनि के लिए, साधक के लिए
- योगम् — योग की अवस्था, साधना
- कर्म — कर्म, कर्तव्य, साधना के कर्म
- कारणम् — कारण, साधन
- उच्यते — कहा जाता है
- योगारूढस्य — जो योग में स्थित हो गया है, स्थिर योगी
- तस्य एव — उसी के लिए
- शमः — शांति, मन का निग्रह, वैराग्य
- कारणम् — कारण, आधार
- उच्यते — कहा जाता है
जो योग में पूर्णता की अभिलाषा करते हैं उनके लिए बिना आसक्ति के कर्म करना साधन कहलाता है और वे योगी जिन्हें पहले से योग में सिद्धि प्राप्त है, उनके लिए साधना में परमशांति को साधन कहा जाता है।

विस्तृत भावार्थ
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में साधना के दो प्रमुख चरणों को स्पष्ट करते हैं:
- योगारम्भ की अवस्था (आरुरुक्षु) –
जब कोई साधक योग की ओर अग्रसर होता है, तब उसका मन चंचल होता है, इन्द्रियाँ प्रबल होती हैं। ऐसे में उसे अपने मन को नियंत्रित करने और एकाग्र करने के लिए कर्म का सहारा लेना चाहिए।- यह कर्म निस्वार्थ सेवा, जप, तप, यज्ञ और नियमित अभ्यास का रूप हो सकता है।
- इन कर्मों के द्वारा चित्त शुद्ध होता है और योग के लिए पात्रता बनती है।
- योगारूढ़ अवस्था –
जब साधक योग में स्थिर हो जाता है, मन शांत हो जाता है, और वह कर्म की अपेक्षा से ऊपर उठ जाता है, तब उसके लिए शम, अर्थात मन की शांति, वैराग्य, और स्थितप्रज्ञता ही साधना के साधन बन जाते हैं।- यह वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति बाह्य कर्मों की आवश्यकता से मुक्त होकर, अंतर्मुखी साधना में लीन हो जाता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- यह श्लोक साधना की क्रमिक यात्रा को दर्शाता है — कर्म से योग, और योग से शम की ओर।
- कर्मयोग प्रारंभिक साधना का माध्यम है, और ज्ञान व ध्यानयोग योगारूढ़ अवस्था में उपयुक्त होता है।
- आरम्भिक साधक के लिए शरीर और मन के माध्यम से कार्य आवश्यक हैं, लेकिन जैसे-जैसे वह अंतर्मुखी होता है, वैराग्य, शांति, और समत्वभाव ही साधना का साधन बन जाते हैं।
- ‘कर्म’ और ‘शम’ दोनों साधना के अंग हैं, परंतु वे साधक की अवस्था पर निर्भर करते हैं।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द | प्रतीकात्मक अर्थ |
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आरुरुक्षु | साधक जो आध्यात्मिक मार्ग पर आरम्भिक स्तर पर है |
कर्म | बाह्य और आंतरिक प्रयास, कर्तव्य और साधन |
योगारूढ़ | स्थिर साधक, जो आत्मदर्शन में स्थित हो चुका है |
शम | मन का निग्रह, वैराग्य, अंतर्मन की स्थिरता |
कारणम् | योग का साधन, जिससे चित्त की शुद्धि और आत्मसाक्षात्कार होता है |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- साधक की अवस्था के अनुसार साधन बदलते हैं; आरम्भ में कर्म आवश्यक है, बाद में शांति और वैराग्य।
- जीवन में जब तक मन चंचल है, तब तक कर्म करते रहना चाहिए, किंतु जब मन स्थिर हो जाए, तब अंतर्मुखी होकर आत्मानुभूति की ओर बढ़ना चाहिए।
- यह श्लोक सिखाता है कि विकास क्रमिक होता है — पहले शरीर से सेवा, फिर मन से साधना।
- योग की सीढ़ियाँ चढ़ते समय पहले कर्म और फिर वैराग्य का सहारा लेना होता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं अभी योग के आरंभिक चरण में हूँ या स्थिर अवस्था में?
- क्या मैं अपने जीवन में निस्वार्थ कर्म के द्वारा चित्तशुद्धि की ओर अग्रसर हूँ?
- क्या मेरे भीतर वैराग्य और मन की शांति प्रकट हो रही है?
- क्या मैं बाहरी कर्मों से धीरे-धीरे अंतर साधना की ओर बढ़ रहा हूँ?
- क्या मैंने शांति और आत्मिक स्थिरता को अपनी साधना का लक्ष्य बनाया है?
निष्कर्ष
यह श्लोक साधक के आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि साधना का कोई एक ही तरीका नहीं होता, वह साधक की स्थिति के अनुसार बदलता है।
- प्रारंभ में कर्म आवश्यक है, क्योंकि वह चित्त की शुद्धि करता है।
- बाद में शम आवश्यक है, क्योंकि वह आत्मा से जुड़ने की योग्यता देता है।
इस श्लोक की शिक्षा है — कर्म से योग की ओर बढ़ो, और योग से आत्मशांति की ओर।
यही आत्मसाक्षात्कार का मार्ग है — क्रमिक, संतुलित और आत्मदर्शी।