मूल श्लोक – 32
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥३२॥
शब्दार्थ
संस्कृत पद | अर्थ |
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आत्मौपम्येन | अपनी समानता से, स्वयं को मापदंड बनाकर |
सर्वत्र | सर्वत्र, सब जगह |
समम् | समान रूप से |
पश्यति | देखता है, अनुभव करता है |
यः | जो |
अर्जुन | हे अर्जुन |
सुखं | सुख में |
वा | या |
यदि | यदि, चाहे |
वा | अथवा |
दुःखं | दुःख में |
सः | वह |
योगी | योगी |
परमः | सर्वोत्तम |
मतः | माना गया है, मेरी दृष्टि में |
मैं उन पूर्ण सिद्ध योगियों का सम्मान करता हूँ जो सभी जीवों में वास्तविक समानता के दर्शन करते हैं और दूसरों के सुखों और दुखों के प्रति ऐसी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं, जैसे कि वे उनके अपने हों।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में श्रीकृष्ण “संपूर्णता की करुणा” और “समभाव की दृष्टि” की बात करते हैं। वे अर्जुन से कहते हैं कि केवल वही सच्चा योगी है जो सभी प्राणियों के सुख-दुःख को अपने ही सुख-दुःख की तरह अनुभव करता है।
आत्मौपम्येन — यह शब्द अत्यंत सारगर्भित है। इसका अर्थ है “अपने जैसा समझना।” एक योगी जब किसी के दुःख को देखता है, तो वह केवल सहानुभूति नहीं करता, बल्कि ऐसा अनुभव करता है मानो वही दुःख स्वयं को हुआ हो। यह दया नहीं, करुणा है — आत्मतुल्यता।
सर्वत्र समं पश्यति — वह व्यक्ति हर एक में समानता देखता है। न कोई ऊँचा है, न नीचा; न कोई अपना है, न पराया। जाति, धर्म, वर्ण, रंग या लिंग का भेद उसके लिए नहीं होता। उसका दृष्टिकोण व्यापक, समदर्शी और समभाव से परिपूर्ण होता है।
सुखं वा यदि वा दुःखं — चाहे कोई आनंद में हो या पीड़ा में, वह योगी उसके साथ तदात्म हो जाता है। वह किसी की खुशी से ईर्ष्या नहीं करता, और किसी के दुःख में उपेक्षा नहीं करता।
स योगी परमो मतः — श्रीकृष्ण कहते हैं, मेरी दृष्टि में वही परम योगी है। इससे स्पष्ट होता है कि योग केवल ध्यान, तप, या आसनों की क्रिया नहीं, बल्कि हृदय की उस करुणामयी दृष्टि का नाम है जिससे हम सबको अपने जैसा अनुभव करें।
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक वेदांत, बौद्ध करुणा, और जैन समत्व के सार को समेटे हुए है। यहाँ आत्मा को केवल अपने भीतर नहीं, दूसरों में भी देखने की बात है।
जब हम दूसरों को अपने जैसा मानने लगते हैं, तभी अहिंसा, करुणा, सेवा और सह-अस्तित्व की भावना जन्म लेती है।
“वसुधैव कुटुम्बकम्” — की भावना इसी आत्मौपम्यता से उत्पन्न होती है।
योग का अंतिम उद्देश्य आत्मा की सार्वभौमिकता का अनुभव है — यह जानना कि जो मैं हूँ, वही तू है, वही सब कुछ है।
प्रतीकात्मक अर्थ
पद | प्रतीकात्मक अर्थ |
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आत्मौपम्येन | आत्मा की सार्वभौमिकता, सभी में आत्मा को देखना |
सर्वत्र समं पश्यति | समभाव की दृष्टि, भेदरहित चेतना |
सुखं वा दुःखं | जीवन के द्वैत (द्वंद्व) को एक दृष्टि से देखना |
स योगी परमो | वह ज्ञानी, अनुभवी, पूर्ण और मुक्त योगी है |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- इस श्लोक से हमें सिखने को मिलता है कि सच्चा योगी वह है जो दूसरों की पीड़ा को अपनी पीड़ा मानकर उसमें सहभागी हो।
- करुणा, सहिष्णुता और समता ही वह वास्तविक आध्यात्मिकता है जिसे भगवान श्रीकृष्ण महत्त्व दे रहे हैं।
- यह शिक्षा केवल व्यक्तिगत मुक्ति नहीं, सामूहिक सौहार्द की ओर संकेत करती है।
- यह भी स्पष्ट होता है कि बिना समभाव के केवल साधना हमें पूर्णता की ओर नहीं ले जा सकती।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं दूसरों के दुःख को उतनी ही गंभीरता से महसूस करता हूँ जितनी अपने दुःख को करता हूँ?
- क्या मेरा व्यवहार जाति, धर्म या भाषा के आधार पर भेद करता है?
- क्या मैं अपने सुख की तरह ही दूसरों के सुख को भी देख पाता हूँ?
- क्या मेरे भीतर करुणा केवल भावना है या व्यवहार का हिस्सा भी है?
- क्या मेरे योग का उद्देश्य केवल आत्मकल्याण है या समष्टि कल्याण भी?
निष्कर्ष
यह श्लोक भगवद्गीता के योग-सिद्धांत को व्यावहारिक जीवन से जोड़ता है।
सच्चा योग वह नहीं जो केवल ध्यान में खो जाए, बल्कि वह है जो समाज में जीते हुए सभी में आत्मा को देखे और सबके सुख-दुःख को आत्मसात करे।
श्रीकृष्ण के अनुसार, वह योगी जो अपने समान ही सबको देखता है — वह योग का चरम स्वरूप है।
वही वास्तव में “परमो योगी” है — जो केवल साक्षी नहीं, सहभागी भी है।