Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 6, Sloke 35

मूल श्लोक – 35

श्रीभगवानुवाच।
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥35॥

शब्दार्थ

संस्कृत पदअर्थ
श्रीभगवान् उवाचभगवान श्रीकृष्ण ने कहा
असंशयंनिःसंदेह
महाबाहोहे महाबाहु (शक्तिशाली भुजाओं वाले अर्जुन)
मनःमन
दुर्निग्रहम्वश में करना कठिन है
चलम्चंचल
अभ्यासेनअभ्यास से
तुपरंतु, वास्तव में
कौन्तेयहे कुन्तीपुत्र (अर्जुन)
वैराग्येणवैराग्य के द्वारा, आसक्ति-त्याग
और
गृह्यतेवश में किया जा सकता है

भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा-हे महाबाहु कुन्तीपुत्र! जो तुमने कहा वह सत्य है, मन को नियंत्रित करना वास्तव में कठिन है। किन्तु अभ्यास और विरक्ति द्वारा इसे नियंत्रित किया जा सकता है।

विस्तृत भावार्थ

इस श्लोक में श्रीकृष्ण एक अत्यंत व्यावहारिक सत्य को स्वीकार करते हैं – कि मन को नियंत्रित करना कठिन है।
यह स्वीकारोक्ति हर साधक के लिए सान्त्वना और मार्गदर्शन दोनों है।

मनो दुर्निग्रहं चलम् – मन स्वभावतः चंचल है। उसकी गति वायु से भी तेज है। उसे बाँधना, नियंत्रित करना एक बड़ा संघर्ष है।
श्रीकृष्ण यह बात नकारते नहीं, बल्कि स्पष्ट रूप से कहते हैं कि यह कठिन है — ‘दुर्निग्रहम्’।

लेकिन वहीं वे समाधान भी बताते हैं —
“अभ्यासेन तु” — नियमित अभ्यास, बार-बार प्रयास।
“वैराग्येण च” — अनासक्ति और विषयों से निवृत्ति।

मन को बिना अभ्यास और बिना वैराग्य के बाँधना वैसा ही है जैसे बिना पतवार और बिना दिशा के नाव को समुद्र में छोड़ देना।

दार्शनिक दृष्टिकोण

यह श्लोक योग-दर्शन और सांख्य-योग के मनोनिग्रह सिद्धांत का सार है।
पतंजलि योगसूत्र में भी कहा गया है —
“अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः” — अभ्यास और वैराग्य से चित्तवृत्तियों का निरोध होता है।

श्रीकृष्ण यह नहीं कहते कि मन को एक ही प्रयास में वश में करो —
बल्कि वे एक प्रक्रिया की बात करते हैं:

  • अभ्यास: मन को बार-बार ईश्वर में लगाना, ध्यान की निरंतरता, आत्मनिरीक्षण।
  • वैराग्य: विषयों में रुचि का क्षय, भोगों से निर्लिप्तता, परिणामों की परवाह छोड़ देना।

मन साधक का सबसे बड़ा मित्र भी है और सबसे बड़ा शत्रु भी — यह उस पर निर्भर है कि हम इसे कितना अनुशासित करते हैं।

प्रतीकात्मक अर्थ

पदप्रतीकात्मक अर्थ
मनः चलम्इच्छाओं और वासनाओं की बेकाबू धारा
दुर्निग्रहम्मन की स्वच्छंद प्रवृत्ति को रोकना कठिन
अभ्यासध्यान, मंत्र, आत्मचिंतन और आत्म-नियंत्रण की सतत क्रिया
वैराग्यमोह-माया से असंग होना, आत्मा के सत्य स्वरूप में स्थित होना

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • मन की चंचलता कोई दुर्बलता नहीं, बल्कि एक स्वाभाविक अवस्था है — इसे स्वीकार कर उससे आगे बढ़ना चाहिए।
  • अभ्यास और वैराग्य दो ऐसे स्तंभ हैं जिन पर आत्मविकास और योग की इमारत खड़ी होती है।
  • साधना का मूल्य निरंतरता में है, न कि अचानक पूर्णता पाने में।
  • संयमित मन ही जीवन में स्थिरता, स्पष्टता और मुक्ति की ओर ले जाता है।

आत्मचिंतन के प्रश्न

  1. क्या मैं अपने मन की चंचलता को स्वीकार करता हूँ या उसे दबाता हूँ?
  2. क्या मैं नियमित आत्मचिंतन, साधना या ध्यान करता हूँ?
  3. क्या मेरा जीवन मोह और वासनाओं से संचालित है या विवेक और वैराग्य से?
  4. जब मेरा मन भटकता है, क्या मैं उसे शांत करने के प्रयास करता हूँ या उसकी दिशा में बह जाता हूँ?
  5. क्या मैं अपने मन को ईश्वर के प्रति प्रशिक्षित कर रहा हूँ?

निष्कर्ष

भगवान श्रीकृष्ण यहाँ एक अत्यंत सजीव और यथार्थ बात कहते हैं —
मन को वश में करना कठिन है, पर असंभव नहीं है।

यदि हम निरंतर अभ्यास करें और जीवन में वैराग्य को विकसित करें —
तो यह मन, जो पहले हमारा शत्रु था, हमारे आत्मिक विकास का साथी बन जाता है।

यह श्लोक साधक को धैर्य, साहस और दिशा देता है —
कि ईश्वर तक की यात्रा में मन के विक्षेप स्वाभाविक हैं,
पर अभ्यास और वैराग्य से वह यात्रा निश्चित रूप से पूरी हो सकती है।

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