मूल श्लोक – 36
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥
शब्दार्थ
संस्कृत पद | अर्थ |
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असंयतात्मना | जिसने आत्मसंयम नहीं किया है, असंयमी व्यक्ति |
योगः | योग, आत्मसाक्षात्कार की स्थिति |
दुष्प्रापः | कठिनता से प्राप्त होने वाला |
इति | ऐसा |
मे | मेरी |
मतिः | मत, धारणा, विचार |
वश्यात्मना | जिसने अपने मन को वश में कर लिया है |
तु | परंतु |
यतता | प्रयत्नशील व्यक्ति के द्वारा |
शक्यः | संभव है, प्राप्त किया जा सकता है |
अवाप्तुम् | प्राप्त करने के लिए |
उपायतः | उचित साधनों से |
जिनका मन निरंकुश है उनके लिए योग करना कठिन है। लेकिन जिन्होंने मन को नियंत्रित करना सीख लिया है और जो समुचित ढंग से निष्ठापूर्वक प्रयास करते हैं, वे योग में पूर्णता प्राप्त कर सकते हैं। यह मेरा मत है।

विस्तृत भावार्थ
यह श्लोक पिछले श्लोक (6.35) की ही तार्किक अगली कड़ी है। वहाँ भगवान ने मन को वश में करने का उपाय बताया था — “अभ्यास और वैराग्य”।
अब वे यह स्पष्ट कर रहे हैं कि यदि आत्मसंयम नहीं है, तो योग केवल कल्पना है।
असंयतात्मना योगो दुष्प्रापः
जिसका मन इंद्रियों के अधीन है — जो भोग, वासना, लोभ और मोह में फँसा हुआ है —
उसके लिए योग, अर्थात ईश्वर का अनुभव, आत्मा में स्थित होना, अत्यंत कठिन है।
यह व्यक्ति इधर-उधर भटकता रहेगा, क्योंकि उसका मन स्थिर नहीं।
वश्यात्मना तु यतता
परंतु जो अपने मन को नियंत्रित कर चुका है — जिसने अभ्यास, वैराग्य और संयम के माध्यम से स्वानुशासन को अपनाया है —
और जो सतत प्रयत्नशील (यतता) है, उसके लिए यह मार्ग खुलता है।
शक्यः अवाप्तुम् उपायतः
ऐसा योगी सही उपायों (साधनों) से योग को प्राप्त कर सकता है।
यहाँ “उपायतः” का तात्पर्य है —
- ध्यान
- सत्संग
- सदाचार
- भक्ति
- आत्मनिरीक्षण
- गुरु की शरण
- ज्ञान और वैराग्य
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक साधक के लिए सतर्कता और आशा दोनों का संदेश है:
- एक ओर चेतावनी है कि बिना आत्मसंयम के योग कठिन है।
- दूसरी ओर यह आश्वासन भी है कि प्रयास और अनुशासन से योग संभव है।
योग यहाँ केवल आसनों या ध्यान का नाम नहीं है, बल्कि ईश्वर की साक्षात अनुभूति, आत्मा में स्थित होना, और मुक्ति का मार्ग है।
और यह मार्ग उन लोगों के लिए है जो अपने अंतःकरण को शुद्ध करते हैं।
प्रतीकात्मक अर्थ
पद | प्रतीकात्मक अर्थ |
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असंयतात्मा | इच्छाओं के वशीभूत मन, विषय-आसक्ति |
योग दुष्प्राप | आत्म-साक्षात्कार कठिन हो जाना |
वश्यात्मा | अनुशासित, नियंत्रित चित्त |
यतता | नित्य साधनशील, साधक |
उपायतः | साधना के योग्य उपाय — ध्यान, सेवा, संयम, सत्संग |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- ईश्वर को पाना केवल भावनाओं से नहीं, संयम और अनुशासन से संभव है।
- बिना आत्मनियंत्रण के साधना एक ढोंग बन सकती है।
- लगातार अभ्यास, भक्ति और ज्ञान ही योग को संभव बनाते हैं।
- यह श्लोक हमें अध्यात्मिक अनुशासन और ईमानदारी से साधना करने के लिए प्रेरित करता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं अपने मन और इंद्रियों पर नियंत्रण रखता हूँ या उनसे नियंत्रित होता हूँ?
- क्या मैं केवल इच्छा करता हूँ या वास्तव में प्रयत्न भी करता हूँ?
- क्या मेरी साधना में निरंतरता है या केवल परिस्थिति के अनुसार चलती है?
- क्या मैं उचित साधनों से ईश्वर प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर हूँ?
- क्या मैं आत्मसंयम के बिना ही आत्मज्ञान की आशा कर रहा हूँ?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में योग की वास्तविक पात्रता बताते हैं।
सिर्फ इच्छा या भावना से योग प्राप्त नहीं होता — यह एक अनुशासित जीवन की साधना है।
मन का संयम, नियमित अभ्यास, और सतत प्रयत्न — यही वे उपाय हैं जिनसे कोई भी साधक योग की उच्च अवस्था तक पहुँच सकता है।
इसलिए जो व्यक्ति अपने चित्त को वश में करता है और प्रयत्नशील रहता है, वही अंततः ईश्वर के साक्षात्कार और आत्मशांति को प्राप्त करता है।