मूल श्लोक – 37
अर्जुन उवाच —
अयतिः श्रद्धया उपेतः योगात् चलित-मानसः।
अप्राप्य योग-संसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | अर्थ |
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अर्जुन उवाच | अर्जुन ने कहा |
अयतिः | असंयमी, जो पूरी साधना न कर सका |
श्रद्धया उपेतः | श्रद्धा से युक्त |
योगात् | योगमार्ग से |
चलित-मानसः | जिसका मन विचलित हो गया |
अप्राप्य | न प्राप्त कर |
योग-संसिद्धिं | योग की पूर्ण सिद्धि, आत्म-साक्षात्कार |
कां गतिं | कौन-सी गति, अवस्था, स्थिति |
कृष्ण | हे कृष्ण! (भगवान श्रीकृष्ण के प्रति संबोधन) |
गच्छति | प्राप्त करता है, पहुँचता है |
अर्जुन ने कहाः हे कृष्ण! योग में असफल उस योगी का भाग्य क्या होता है जो श्रद्धा के साथ इस पथ पर चलना प्रारम्भ तो करता है किन्तु जो अस्थिर मन के कारण भरपूर प्रयत्न नहीं करता और इस जीवन में योग के लक्ष्य तक पहुँचने में असमर्थ रहता है।

विस्तृत भावार्थ
यह श्लोक साधना में विफल हुए साधकों के भविष्य को लेकर अर्जुन की चिंता को प्रकट करता है।
अर्जुन यहाँ एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाते हैं — यदि कोई व्यक्ति पूरी निष्ठा और श्रद्धा के साथ योगमार्ग पर चलता है, लेकिन मन की अस्थिरता या किसी कारणवश साधना को बीच में छोड़ देता है, तो उसका क्या होता है?
“अयतिः श्रद्धयोपेतः” — वह व्यक्ति जो श्रद्धा से युक्त तो था, परंतु योग की पूर्ण साधना नहीं कर सका।
“चलितमानसः” — उसका मन चलायमान हो गया, अर्थात वह बीच में मार्ग से भटक गया।
“अप्राप्य योगसंसिद्धिं” — उसने अभी तक पूर्ण आत्मसाक्षात्कार प्राप्त नहीं किया।
अब अर्जुन की चिंता यह है कि क्या ऐसा साधक न इधर का रहा, न उधर का?
क्या उसका प्रयास व्यर्थ चला गया?
यह एक वास्तविक और दार्शनिक रूप से गहन प्रश्न है —
क्या अधूरी साधना का कोई फल नहीं?
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक हमें यह समझने का अवसर देता है कि भगवद्गीता केवल आदर्शों की बात नहीं करती, बल्कि साधकों की वास्तविक समस्याओं को स्वीकार करती है।
यहाँ अर्जुन की चिंता आम मनुष्य की चिंता है —
“अगर मैं आधे रास्ते में गिर गया, तो क्या सब व्यर्थ चला जाएगा?”
यह श्लोक योग-साधना को एक निरंतर यात्रा के रूप में प्रस्तुत करता है, न कि एक बार की सफलता या असफलता के रूप में।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द | प्रतीकात्मक अर्थ |
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अयतिः | वह जो अभी भी साधना में परिपक्व नहीं हुआ |
श्रद्धयोपेतः | अंतःकरण में भक्ति और श्रद्धा विद्यमान |
चलितमानसः | संसारिक आकर्षणों से विचलित हुआ चित्त |
योगसंसिद्धिं | पूर्ण आत्मबोध, योग की चरम स्थिति |
कां गतिं | अगले जीवन की दिशा, आत्मा की गति |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- अधूरी साधना भी व्यर्थ नहीं जाती — यदि उसमें श्रद्धा हो।
- अर्जुन का यह प्रश्न हमें यह सिखाता है कि आध्यात्मिक जीवन में असफलता केवल अस्थायी होती है, स्थायी नहीं।
- भगवान से ऐसे प्रश्न पूछना भी भक्ति और ज्ञान की प्रक्रिया का हिस्सा है।
- मन की विचलनशीलता स्वाभाविक है, पर यदि श्रद्धा बनी रहती है, तो आगे की यात्रा संभव है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं श्रद्धा से जुड़ा हूँ, भले ही मेरी साधना पूर्ण न हो?
- क्या मैं योगमार्ग पर चला था लेकिन बीच में मेरा मन भटक गया?
- क्या मुझे लगता है कि आध्यात्मिक प्रयास में असफल होना स्थायी विफलता है?
- क्या मेरी चिंता ईश्वर से संबंध टूटने की है या दुनिया से?
- क्या मैं भगवान से अपने आंतरिक डर और संदेह साझा कर पाता हूँ?
निष्कर्ष
इस श्लोक में अर्जुन एक अत्यंत मानवीय प्रश्न उठाते हैं —
“क्या ईश्वर की ओर बढ़ा एक अधूरा कदम भी व्यर्थ हो जाता है?”
यह प्रश्न हर उस व्यक्ति का है जिसने कभी श्रद्धा से साधना आरंभ की हो, लेकिन संसार की खींचतान में कहीं खो गया हो।
भगवद्गीता का उत्तर इस प्रश्न के माध्यम से हमें यह आश्वासन देता है — “नहीं, ऐसा नहीं होता।”
ईश्वर श्रद्धा को गिनते हैं, पूर्णता को नहीं।
जो व्यक्ति श्रद्धा से आरंभ करता है, उसकी यात्रा चाहे अधूरी रह जाए, लेकिन वह कभी समाप्त नहीं होती।