मूल श्लोक – 40
श्रीभगवानुवाच।
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद् दुर्गतिं तात गच्छति ॥40॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | हिन्दी अर्थ |
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श्रीभगवानुवाच | भगवान श्रीकृष्ण ने कहा |
पार्थ | हे पार्थ! (अर्जुन का एक नाम) |
न एव | कदापि नहीं |
इह | इस लोक में |
न अमुत्र | न परलोक में |
विनाशः | विनाश, हानि |
तस्य | उस साधक का |
विद्यते | होता है, पाया जाता है |
न हि | निश्चय ही नहीं |
कल्याणकृत् | शुभ कर्म करने वाला, पुण्यात्मा |
कश्चित् | कोई भी |
दुर्गतिं | पतन, अधोगति |
तात | हे प्रिय (पुत्रवत संबोधन – अर्जुन के लिए) |
गच्छति | प्राप्त होता है, पहुँचता है |
परमेश्वर श्रीकृष्ण ने कहाः हे पृथा पुत्र! आध्यात्मिक पथ का अनुसरण करने वाले योगी का न तो इस लोक में और न ही परलोक में विनाश होता है। मेरे प्रिय मित्र। भगवद्प्राप्ति के मार्ग पर चलने वाले को बुराई पराजित नहीं कर सकती।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन की गहरी चिंता का समाधान करते हैं। पिछले श्लोकों में अर्जुन ने पूछा था कि यदि कोई साधक योग में पूर्णतः सिद्ध नहीं हो पाया, तो उसका क्या होता है?
क्या उसका प्रयास व्यर्थ चला गया? क्या वह न इधर का रहा, न उधर का?
श्रीकृष्ण यहाँ अत्यंत आश्वस्तिपूर्ण उत्तर देते हैं — “नैव इह न अमुत्र विनाशः” — न तो इस जीवन में, न ही अगले जीवन में, उस साधक का विनाश होता है।
भगवान कहते हैं कि “कल्याणकृत्” — जो भी अच्छा कार्य करता है, चाहे वह योग हो, भक्ति हो, अथवा सत्य की खोज — वह कभी भी पतन को प्राप्त नहीं होता।
यह आध्यात्मिक न्याय का सिद्धांत है — जो शुभ कर्म करता है, उसकी रक्षा होती है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक भगवद्गीता के मूल सन्देशों में से एक को प्रतिपादित करता है — ईश्वर श्रद्धा और प्रयास को गिनते हैं, केवल पूर्णता को नहीं।
- यहाँ “कल्याणकृत्” शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह किसी विशेष धर्म, मत या संप्रदाय की सीमा से परे जाकर, हर शुभ कर्म करने वाले को शामिल करता है।
- यह श्लोक आध्यात्मिक प्रयास की गारंटी देता है कि यदि साधक की नीयत शुद्ध है, तो उसका कोई प्रयास व्यर्थ नहीं जाएगा — चाहे वह इस जन्म में फलित हो या अगले में।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द | प्रतीकात्मक अर्थ |
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इह | यह जीवन, वर्तमान कर्मभूमि |
अमुत्र | परलोक, आत्मा की अगली यात्रा |
विनाश | आध्यात्मिक पतन, आत्मा का मार्ग से च्युत होना |
कल्याणकृत् | शुभ और उन्नत कर्म करने वाला हर जीव |
दुर्गतिं | अधोगति, अवनति, मोक्ष से दूर जाने वाली अवस्था |
तात | परम स्नेह का भाव, जो बताता है कि ईश्वर साधक से कितनी करुणा से बात कर रहे हैं |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- श्रद्धा से किया गया हर प्रयास फल देता है, भले ही वह तत्काल दृष्टिगोचर न हो।
- ईश्वर केवल निष्कलंक पूर्णता नहीं चाहते, बल्कि ईमानदार प्रयास और शुभ नीयत को भी महत्व देते हैं।
- आध्यात्मिक पथ पर गिरना हार नहीं है — यह केवल एक अस्थायी ठहराव है।
- इस श्लोक से साधकों को यह बल मिलता है कि वे अपनी असफलताओं से हतोत्साहित न हों।
- जो भी सत्य, भक्ति, योग, या करुणा के पथ पर चलता है, उसकी रक्षा स्वयं ईश्वर करते हैं।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं अपने आध्यात्मिक प्रयासों को लेकर हतोत्साहित हो जाता हूँ?
- क्या मैं यह विश्वास रखता हूँ कि ईश्वर मेरी नीयत और कर्मों को देख रहे हैं?
- क्या मेरे जीवन में “कल्याणकृत्” होने के लक्षण हैं?
- क्या मैं अपनी असफलताओं को पूर्ण नाश समझ बैठता हूँ?
- क्या मैं इस लोक और परलोक दोनों में आत्मिक स्थायित्व पाने का प्रयास करता हूँ?
निष्कर्ष
श्रीभगवान का उत्तर अर्जुन की चिंता का समाधान है और साथ ही हर साधक के लिए आश्वासन भी।
यह श्लोक बताता है कि आध्यात्मिक पथ पर किया गया हर कदम सुरक्षित है।
भले ही योग की सिद्धि इस जन्म में न हो — लेकिन उसका बीज नष्ट नहीं होता।
जो “कल्याणकृत्” है, वह दुर्गतिं नहीं गच्छति।
यह भगवद्गीता की आध्यात्मिक गारंटी है — ईश्वर हमें छोड़ते नहीं, बल्कि हमारे शुभ प्रयासों को संभालकर रखते हैं।