मूल श्लोक – 41
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥41॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | अर्थ |
---|---|
प्राप्य | प्राप्त करके |
पुण्यकृताम् | पुण्य कर्म करने वालों के |
लोकान् | लोकों को, स्वर्ग आदि पुण्यलोक |
उषित्वा | निवास करके |
शाश्वतीः समाः | अनेक वर्षों तक, दीर्घकाल तक |
शुचीनाम् | शुद्ध, पवित्र |
श्रीमताम् | समृद्ध, धनाढ्य |
गेहे | घर में, कुल में |
योगभ्रष्टः | योगमार्ग से च्युत हुआ साधक |
अभिजायते | जन्म लेता है, पुनर्जन्म प्राप्त करता है |
असफल योगी मृत्यु के पश्चात पुण्य आत्माओं के लोक में जाते हैं। अनेक वर्षों तक वहाँ निवास करने के पश्चात वे पृथ्वी पर कुलीन या धनवानों के कुल में पुनः जन्म लेते हैं

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को आश्वस्त करते हैं कि योगमार्ग में विफल (योगभ्रष्ट) व्यक्ति का प्रयास व्यर्थ नहीं जाता।
ऐसा साधक मृत्यु के बाद पुण्यकर्मों के प्रभाव से स्वर्ग आदि उच्च लोकों में निवास करता है।
वहाँ शाश्वतीः समाः – अर्थात् लंबे समय तक सुख का अनुभव करने के पश्चात — वह शुचीनां श्रीमतां गेहे – यानी पवित्र और समृद्ध घरों में जन्म लेता है।
यह अगला जन्म उसकी पिछली साधना को आगे बढ़ाने के लिए अनुकूल परिस्थिति प्रदान करता है।
इस प्रकार यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि अधूरी योग-साधना भी संचित रहती है और अगले जन्म में उसे आगे बढ़ाने के लिए अनुकूल स्थितियाँ मिलती हैं।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धांत को यहाँ स्पष्ट रूप से दर्शाया गया है।
- आध्यात्मिक यात्रा में अधूरा प्रयास भी आत्मिक प्रगति का हिस्सा है — यह एक बार की घटना नहीं, बल्कि अनेक जन्मों की निरंतर प्रक्रिया है।
- “योगभ्रष्ट” व्यक्ति वह है, जो पूर्ण सिद्धि तक नहीं पहुँचता, लेकिन उसकी श्रद्धा, प्रयास, और आंतरिक चेतना उसे अगले जन्म में आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करते हैं।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द | प्रतीकात्मक अर्थ |
---|---|
पुण्यकृतां लोकान् | स्वर्गीय अनुभव, कर्मफलस्वरूप सुख |
शाश्वतीः समाः | दीर्घ समय तक आत्मा की विश्रांति |
शुचीनाम् | आध्यात्मिक शुद्धता से युक्त कुल |
श्रीमताम् | भौतिक समृद्धि के साथ साथ आध्यात्मिक अनुकूलता |
योगभ्रष्टः | आध्यात्मिक यात्रा में अस्थायी रूप से च्युत साधक |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- अधूरी साधना भी सुरक्षित रहती है, वह नष्ट नहीं होती।
- परमात्मा की व्यवस्था में न्याय है — योगी को आगे बढ़ने के उचित अवसर अगली जन्मयात्राओं में मिलते हैं।
- आध्यात्मिक जीवन में असफलता का भय त्यागकर हमें ईमानदारी से प्रयास करते रहना चाहिए।
- शुद्ध और समृद्ध परिवार में जन्म केवल भौतिक सुख नहीं, साधना के लिए अनुकूल परिवेश भी है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं इस जन्म में साधना के लिए अनुकूल परिस्थितियों को अपने पूर्व जन्मों के पुण्य का फल मानता हूँ?
- क्या मेरी साधना में निरंतरता है, भले ही उसमें पूर्णता न हो?
- क्या मैं ईश्वर की न्यायपूर्ण व्यवस्था में विश्वास करता हूँ?
- क्या मैंने आध्यात्मिक प्रयासों को कभी बीच में छोड़ दिया है — और क्या अब मैं फिर से प्रारंभ कर सकता हूँ?
- क्या मैं अपने परिवार को भी एक साधना के अनुकूल वातावरण बना सकता हूँ?
निष्कर्ष
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण यह संदेश देते हैं कि ईश्वर की दृष्टि में श्रद्धा और प्रयास व्यर्थ नहीं जाते।
योगमार्ग में यदि कोई साधक असफल होता है, तो वह उच्चतर लोकों में सुख भोगने के बाद पुनः एक शुभ और साधक-उपयुक्त परिवार में जन्म लेता है।
इस प्रकार यह श्लोक साधकों को निराश न होकर, श्रद्धा और निष्ठा से साधना करते रहने का प्रेरणा देता है।
ईश्वर हर साधक की यात्रा को देख रहे हैं — और उसका हर प्रयास संचित होता है, उसका फल निश्चित है।