मूल श्लोक – 42
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | हिन्दी अर्थ |
---|---|
अथवा | या फिर |
योगिनाम् एव | केवल योगियों के |
कुले | कुल में, परिवार में |
भवति | जन्म लेता है |
धीमताम् | बुद्धिमान, ज्ञानियों के |
एतत् | यह |
हि | निश्चय ही |
दुर्लभतरम् | अत्यंत दुर्लभ |
लोके | संसार में |
जन्म | जन्म |
यदीदृशम् | ऐसा जैसा बताया गया है |
अथवा जब वे दीर्घकाल तक योग के अभ्यास से उदासीन हो चुके होते हैं तब उनका जन्म दिव्य ज्ञान से सम्पन्न परिवारों में होता है। संसार में ऐसा जन्म अत्यंत दुर्लभ है।

विस्तृत भावार्थ
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के उस प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं, जिसमें उसने यह पूछा था कि यदि कोई योगी साधना में पूर्ण सिद्ध नहीं हो पाया, तो उसका क्या होता है।
पिछले श्लोक (6.41) में श्रीकृष्ण ने कहा कि ऐसा साधक पुण्यात्माओं के कुल में जन्म लेता है।
अब इस श्लोक में वे एक और — और भी श्रेष्ठ — संभावना बताते हैं:
“योगिनामेव कुले भवति धीमताम्” —
वह साधक योगियों के घर में जन्म लेता है, जो न केवल धार्मिक होते हैं, बल्कि गहरे स्तर पर बुद्धिमान और आत्मज्ञान से युक्त होते हैं।
“एतद्धि दुर्लभतरं” — ऐसा जन्म अत्यंत दुर्लभ होता है, क्योंकि:
- यह साधक को आध्यात्मिक वातावरण में जन्म लेने का अवसर देता है।
- वहां उसे बचपन से ही योग, भक्ति, साधना, और आत्मज्ञान की दिशा में प्रेरणा मिलती है।
- उसे संसार के मोह में बहुत अधिक नहीं फँसना पड़ता।
यह जन्म उसके पूर्व जन्म के योगिक प्रयासों का परिणाम होता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
भगवद्गीता यहाँ कर्म और पुनर्जन्म के गहरे सिद्धांत को स्पष्ट करती है:
- आध्यात्मिक प्रयास व्यर्थ नहीं जाते।
- यदि कोई इस जीवन में सिद्ध नहीं हो पाता, तो अगले जीवन में उसे उन परिस्थितियों में जन्म दिया जाता है जो उसकी यात्रा को पूर्णता की ओर ले जाएँ।
- पुनर्जन्म कोई दंड नहीं, बल्कि अवसर है — उस पथ को फिर से पूरा करने का जिसमें बाधा आ गई थी।
“योगिनामेव कुले” — यह इंगित करता है कि आत्म-साधना करने वालों का कुल ही आत्म-साक्षात्कार की उच्च भूमि होता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द | प्रतीकात्मक अर्थ |
---|---|
योगिनाम् कुले | आध्यात्मिक वातावरण, संयमित परिवार |
धीमताम् | आत्मज्ञान से युक्त, विवेकशील जन |
एतद्धि दुर्लभतरम् | ऐसे जीवन की उपलब्धि दुर्लभतम अवसर |
जन्म | केवल शरीर की उत्पत्ति नहीं, आत्मिक यात्रा का नया चरण |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- यह श्लोक हमें धैर्य और श्रद्धा का पाठ पढ़ाता है — साधना अधूरी हो जाए तो भी चिंता न करें, अगला जन्म हमें उस दिशा में आगे बढ़ाने के लिए होगा।
- यदि इस जन्म में कठिनाइयाँ हैं, तो भी यह मानें कि पूर्व जन्मों का योगसंचय हमें किसी शुभ लक्ष्य की ओर लिए जा रहा है।
- हर आध्यात्मिक प्रयास एक बीज है, जो उचित समय पर फल अवश्य देगा।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं ऐसे योगिक जीवन की ओर आगे बढ़ रहा हूँ कि अगला जन्म और भी श्रेष्ठ हो?
- क्या मेरी साधना आज मुझे ऐसे परिवारों में जन्म दिलाने की पात्रता बना रही है?
- क्या मैं उन बच्चों या लोगों की पहचान कर पा रहा हूँ जिनका जन्म ऐसे “योगिक कुलों” में हुआ है?
- क्या मैं स्वयं अपने घर को ऐसा “योगियों का कुल” बना पा रहा हूँ?
- क्या मैं अपने पूर्वजन्म के किसी अधूरे योग को इस जीवन में पूर्ण कर रहा हूँ?
निष्कर्ष
यह श्लोक साधक के आत्मिक भविष्य की सुन्दर संभावना दिखाता है।
श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि:
“जो योगमार्ग में लगा है, वह कभी पतित नहीं होता। यदि इस जन्म में नहीं, तो अगले में उसे फिर अवसर मिलेगा — और वह भी ऐसे कुल में, जहाँ साधना स्वाभाविक होगी।”
यह गीता का दिव्य आश्वासन है:
श्रद्धा से उठाया गया हर कदम — मोक्ष की ओर ही ले जाता है।