मूल श्लोक – 43
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | अर्थ |
---|---|
तत्र | वहाँ, उस जन्म में |
तम् | उसी (बुद्धियोग) को |
बुद्धिसंयोगम् | पूर्व जन्म की आध्यात्मिक बुद्धि का संयोग, योग का संपर्क |
लभते | प्राप्त करता है |
पौर्वदेहिकम् | पूर्व शरीर (पूर्वजन्म) से सम्बन्धित |
यतते | फिर से प्रयत्न करता है |
च | और |
ततः | उसके बाद |
भूयः | पुनः, फिर से |
संसिद्धौ | पूर्ण सिद्धि में, आत्मसाक्षात्कार में |
कुरुनन्दन | हे कुरुवंशी (अर्जुन)! |
हे कुरुवंशी! ऐसा जन्म लेकर वे पिछले जन्म के ज्ञान को पुनः जागृत करते हैं और योग में पूर्णता के लिए और अधिक कड़ा परिश्रम करते हैं।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि योगमार्ग में असफल हुए व्यक्ति को अगली जन्म यात्रा में न केवल शुभ और पवित्र कुल में जन्म मिलता है (जैसा श्लोक 41 में कहा गया), बल्कि वह अपने पूर्व जन्म की आध्यात्मिक स्मृति और विवेक को भी प्राप्त करता है।
“बुद्धिसंयोगं पौर्वदेहिकम् लभते” — अर्थात वह व्यक्ति अपने पिछले जन्म में जो योग-बुद्धि अर्जित कर चुका था, उसे अगली देह में पुनः प्राप्त कर लेता है।
यह कोई सामान्य ज्ञान नहीं, बल्कि आध्यात्मिक प्रेरणा और झुकाव है जो उसे साधना की ओर पुनः आकर्षित करता है।
“यतते च ततो भूयः” — और इसके परिणामस्वरूप वह इस जन्म में भी पुनः उसी मार्ग पर लगकर अधिक प्रयास करता है।
इस प्रकार, वह व्यक्ति योग की “संसिद्धि”, अर्थात पूर्ण आत्म-साक्षात्कार और ईश्वर प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- यह श्लोक गीता की पुनर्जन्म, कर्म और आत्मा की निरंतर यात्रा की अवधारणा को पुष्ट करता है।
- आत्मा का ज्ञान, विवेक और प्रयास कभी नष्ट नहीं होते; वे संचित रहते हैं और अगले जीवन में वापस उभर आते हैं।
- इसलिए आध्यात्मिक प्रयास, भले ही अधूरा रह जाए, फिर भी वह भविष्य के लिए अमूल्य बीज है।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द | प्रतीकात्मक अर्थ |
---|---|
बुद्धिसंयोगम् | आत्मा की भीतर छिपी आध्यात्मिक स्मृति |
पौर्वदेहिकम् | पूर्व जन्म का अभ्यास और संस्कार |
यतते | साधक का नया प्रयास |
संसिद्धौ | अंतिम लक्ष्य – आत्मज्ञान, मोक्ष |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- कोई भी आध्यात्मिक प्रयास व्यर्थ नहीं जाता।
- हमारी आत्मा में पूर्व जन्मों की साधना की गूढ़ छाया होती है, जो अनुकूल अवसर पर सक्रिय हो जाती है।
- आध्यात्मिक मार्ग पर गिरना अंतिम विफलता नहीं — फिर से उठना ही सच्चा प्रयत्न है।
- यदि जीवन में कभी अनायास आध्यात्मिक आकर्षण या प्रवृत्ति महसूस हो — तो समझना चाहिए कि वह पूर्व जन्म की साधना की पुकार है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मेरे भीतर किसी पूर्व जन्म की आध्यात्मिक झलकें या प्रवृत्तियाँ सक्रिय हैं?
- क्या मुझे लगता है कि मेरा झुकाव साधना की ओर सहज और स्वाभाविक है?
- क्या मैं अपने पुराने प्रयासों को छोड़कर फिर से साधना का संकल्प ले सकता हूँ?
- क्या मैं अपनी जीवन यात्रा को एक निरंतर आध्यात्मिक यात्रा मानता हूँ?
- क्या मैं अपनी बुद्धि और विवेक को पुनः योग से जोड़ रहा हूँ?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में अत्यंत गहन और सांत्वनादायक सत्य बताते हैं —
सच्ची साधना कभी नष्ट नहीं होती।
जो योगमार्ग पर चला, भले ही पूर्णता को न प्राप्त कर सका, पर वह अगले जन्म में अपने ही पिछले प्रयासों से पुनः प्रेरित होता है और उस दिशा में दुबारा अग्रसर होता है।
यह श्लोक उन साधकों के लिए है जो सोचते हैं — “अब देर हो गई है”
या “हमने साधना छोड़ दी थी” —
भगवद्गीता कहती है — “नहीं! तुम जहाँ गिरे थे, वहीं से फिर उठो।”
“पुराना विवेक फिर से जागेगा — बस संकल्प पुनः कर लो।”