मूल श्लोक – 44
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | हिन्दी अर्थ |
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पूर्व-अभ्यासेन | पूर्व जन्म के अभ्यास से |
तेन एव | उसी के द्वारा |
ह्रियते | आकृष्ट होता है, खिंचता है |
हि | निश्चय ही |
अवशः अपि | चाह कर भी न रोक पाने वाला, असहाय सा |
सः | वह (साधक) |
जिज्ञासुः अपि | केवल जानने की इच्छा रखने वाला भी |
योगस्य | योग के विषय में, योगमार्ग का |
शब्द-ब्रह्म | वेदों में वर्णित कर्मकांड, मन्त्रों का ज्ञान |
अति-वर्तते | पार हो जाता है, अतिक्रमण कर जाता है |
वास्तव में वे अपने पूर्व जन्मों के आत्मसंयम के बल पर अपनी इच्छा के विरूद्ध स्वतः भगवान की ओर आकर्षित होते हैं। ऐसे जिज्ञासु साधक स्वाभाविक रूप से शास्त्रों के कर्मकाण्डों से ऊपर उठ जाते हैं।

विस्तृत भावार्थ
यह श्लोक पूर्वजन्म की साधना के प्रभाव को अत्यंत मार्मिक ढंग से प्रकट करता है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि कोई साधक पिछले जन्म में योगमार्ग पर चल रहा था, पर किसी कारणवश पूर्ण सिद्धि तक नहीं पहुँच पाया, तो:
- “पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते” — उसी अभ्यास की शक्ति उसे इस जन्म में भी आकर्षित करती है।
- “अवशः अपि” — वह साधक चाह कर भी उस खिंचाव से मुक्त नहीं हो सकता। यह उसकी आत्मा में बैठी हुई प्रेरणा है, जो उसे योग की ओर खींचती है।
यहाँ यह स्पष्ट होता है कि योग केवल इस जन्म का संकल्प नहीं है, बल्कि आत्मा की बहु-जन्मीय यात्रा का परिणाम है।
दूसरा भाग कहता है:
- “जिज्ञासुः अपि योगस्य” — वह जो केवल योग के विषय में जानने की इच्छा रखता है,
- “शब्दब्रह्मातिवर्तते” — वह वेदों में वर्णित कर्मकांड की सीमाओं से ऊपर उठ जाता है।
“शब्दब्रह्म” का अर्थ है वेदों के वे शब्द जो यज्ञ, हवन, संस्कार आदि कर्मों का विधान करते हैं।
भगवद्गीता का यह श्लोक कहता है कि केवल योग की सच्ची जिज्ञासा भी कर्मकांड से श्रेष्ठ है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक हमें आध्यात्मिक पुनर्जन्म और आत्मा की विकास यात्रा को समझने का अवसर देता है।
- पूर्व-अभ्यास नष्ट नहीं होता, वह आत्मा की स्मृति में किसी बीज के रूप में छिपा रहता है।
- सही समय आने पर वह बीज अंकुरित होता है — साधक को स्वतः ही ध्यान, भक्ति, सत्य की ओर आकृष्ट करता है।
- यह दर्शाता है कि योग और आत्मज्ञान का पथ केवल तर्क या अध्ययन से नहीं, बल्कि पूर्व संस्कारों और भीतर की पुकार से भी तय होता है।
“शब्दब्रह्मातिवर्तते” यह भी बताता है कि योगमार्ग कर्मकांड से ऊँचा है — जहाँ साधक आत्मा के अनुभव की ओर बढ़ता है, न कि केवल विधियों के पालन की ओर।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द | प्रतीकात्मक अर्थ |
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पूर्वाभ्यास | आत्मा की जमा पूँजी, पिछले जन्मों की आध्यात्मिक तैयारी |
ह्रियते | भीतरी खिंचाव, अंतःप्रेरणा |
अवशः | आत्मा की विवशता, जो सत्य की ओर खिंचती है |
जिज्ञासुः | वह साधक जो अब भी खोज में है |
शब्दब्रह्म | बाह्य कर्मकांड, धार्मिक अनुष्ठानों की सीमितता |
अति-वर्तते | अनुभव की ओर जाना, सत्य के स्वरूप को छूना |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- आध्यात्मिक प्रयास कभी व्यर्थ नहीं जाता, वह आत्मा की स्मृति में संचित रहता है।
- पूर्व संस्कार व्यक्ति को बार-बार उस पथ की ओर ले जाते हैं, जिससे वह जुड़ा हुआ है।
- केवल सच्ची जिज्ञासा भी एक शक्तिशाली आध्यात्मिक मूल्य है।
- कर्मकांड से ऊपर उठकर योग का अनुभव ही मोक्ष की दिशा में प्रगति है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मुझे कभी ऐसा अनुभव हुआ कि मैं योग या आत्मज्ञान की ओर अनजाने में आकर्षित हो गया?
- क्या यह आकर्षण मेरे पिछले जन्म के अभ्यास का परिणाम हो सकता है?
- क्या मैं केवल धार्मिक कर्मकांड तक सीमित हूँ या अनुभव की खोज कर रहा हूँ?
- क्या मेरी जिज्ञासा सतही है या वास्तव में आत्मा की गहराई से उठी है?
- क्या मैं अपने पूर्व संस्कारों की आवाज़ को पहचान पा रहा हूँ?
निष्कर्ष
यह श्लोक यह बताता है कि:
जो एक बार भी योग के मार्ग पर चला है, वह खो नहीं जाता।
उसका प्रयास अगले जन्म में भी उसे उसी दिशा में आगे बढ़ाता है।
यह प्रक्रिया अनजाने में भी चलती रहती है, क्योंकि आत्मा सत्य की ओर खिंचती है।
और केवल जिज्ञासा रखने वाला भी कर्मकांडों से आगे बढ़ सकता है — क्योंकि वह ज्ञान और अनुभव की ओर अग्रसर है।
यह योग की शक्ति है — जो पुनः पुनः आत्मा को उसकी पूर्णता की ओर खींचती है।