मूल श्लोक – 5
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥5॥
शब्दार्थ
- उद्धरेत् — ऊपर उठाए, उन्नति करे
- आत्मना — अपने द्वारा, अपने ही माध्यम से
- आत्मानं — स्वयं को, अपने को
- न — नहीं
- अवसादयेत् — गिराए, पतन करे, हीन बनाए
- आत्मा एव — आत्मा ही
- हि — निश्चय ही
- आत्मनः — अपने ही
- बन्धुः — मित्र, सहायक
- आत्मा एव — आत्मा ही
- रिपुः — शत्रु
- आत्मनः — अपने ही
मन की शक्ति द्वारा अपना आत्म उत्थान करो और स्वयं का पतन न होने दो। मन जीवात्मा का मित्र और शत्रु भी हो सकता है।

विस्तृत भावार्थ
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में स्व-उत्थान (Self-Elevation) और आत्म-जवाबदेही (Self-Responsibility) की अत्यंत गूढ़ शिक्षा देते हैं। वे कहते हैं:
- हर व्यक्ति को अपने ही प्रयासों से स्वयं को ऊपर उठाना चाहिए।
- यदि वह आत्म-विकास नहीं करता, तो उसका पतन निश्चित है, और इसके लिए वह स्वयं ही उत्तरदायी होता है।
- हमारा मन और बुद्धि — यही आत्मा के बंधु (मित्र) बन सकते हैं यदि इनका उपयोग विवेकपूर्वक हो।
- लेकिन यही मन यदि विक्षिप्त, कामनाओं और मोह में डूबा हुआ हो, तो वह शत्रु बन जाता है, जो आत्मा को पतन की ओर ले जाता है।
इसलिए श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि कोई बाहरी शत्रु नहीं है, सबसे बड़ा मित्र और सबसे बड़ा शत्रु — स्वयं ‘मैं’ हूँ।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- यह श्लोक स्वाध्याय, आत्मनियंत्रण और स्वबोध का आह्वान है।
- आध्यात्मिक प्रगति की दिशा बाहरी नहीं, अंतरमुखी है।
- व्यक्ति अपने ही विचारों, भावनाओं और वृत्तियों द्वारा ऊँचाइयाँ छू सकता है, या नीचे गिर सकता है।
- यह श्लोक आत्मा को कर्तापन, दायित्व और चेतना से जोड़ता है।
- श्रीकृष्ण यहाँ कर्मयोग, राजयोग और ज्ञानयोग तीनों का संगम करते हैं — कर्म द्वारा आत्म-उद्धार, योग द्वारा मन की मैत्री और ज्ञान द्वारा आत्मबोध।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द | प्रतीकात्मक अर्थ |
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आत्मा | मन, बुद्धि, चेतना, अहंकार — व्यक्ति की आंतरिक सत्ता |
बंधु | आत्मा जब संयमित हो, विवेकयुक्त हो, तो वह सहायता करती है |
रिपु | जब आत्मा मोह, वासना, अहंकार में फंसी हो, तो पतन कराती है |
उद्धरेत् | स्व-विकास, आत्म-प्रेरणा, आत्मोन्नति की प्रक्रिया |
अवसाद | निराशा, आत्म-हीनता, कर्तव्य विमुखता |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- स्वयं की सहायता स्वयं करो — यही आत्मनिर्भरता की गीता में परिभाषा है।
- मन यदि वश में है, तो मित्र है; यदि मन स्वेच्छाचारी है, तो वही शत्रु बन जाता है।
- दूसरों को दोष देना आत्म-विकास में सबसे बड़ी बाधा है।
- शांति, सफलता, और मुक्ति — ये भीतर की दशाएं हैं, बाह्य परिस्थिति पर निर्भर नहीं।
- जीवन में जो कुछ हम बनते हैं, वह हमारे विचारों, विकल्पों और दृष्टिकोणों का परिणाम होता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं अपने जीवन का नेतृत्व स्वयं कर रहा हूँ या केवल परिस्थितियों के अनुसार बह रहा हूँ?
- क्या मेरा मन मेरा मित्र है या मेरे ही विरुद्ध चलने वाला शत्रु?
- क्या मैं आत्मबल और अनुशासन से अपने जीवन को ऊँचा उठा रहा हूँ?
- क्या मैंने अपने भीतर बैठे आलोचक को शांत कर, आत्ममित्र को जगाया है?
- क्या मैं निराशा या आलस्य के हाथों अपने उत्थान को रोक तो नहीं रहा?
निष्कर्ष
यह श्लोक स्वतंत्रता और जिम्मेदारी का गूढ़ संदेश देता है।
भगवान श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि जीवन की दिशा कोई और तय नहीं करता — हम स्वयं अपने बंधु (मित्र) और रिपु (शत्रु) हैं।
कर्म और चेतना का योग ही आत्म-उद्धार का साधन है।
जब हम अपने मन को साध लेते हैं, तब सारा जगत हमारा सहयोगी बन जाता है।
सार भाव यह है:
“अपने जीवन की बागडोर स्वयं संभालो, मन को मित्र बनाओ, और आत्म-प्रेरणा से आत्मोन्नति करो — यही गीता की सच्ची साधना है।”