मूल श्लोक – 14
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | हिंदी अर्थ |
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दैवी | दिव्य, ईश्वरीय |
हि | निश्चय ही |
एषा | यह (प्रकृति) |
गुणमयी | तीन गुणों से बनी हुई (सत्त्व, रज, तम) |
मम | मेरी (ईश्वर की) |
माया | मोह, भ्रमजनक शक्ति, जगत का आवरण |
दुरत्यया | अति कठिन है पार करना, जिसे लांघना कठिन है |
माम् | मुझे, भगवान को |
एव | ही, केवल |
ये | जो |
प्रपद्यन्ते | पूर्ण समर्पण करते हैं |
ताम् | उस (माया को) |
तरन्ति | पार कर जाते हैं |
ते | वे |
प्रकति के तीन गुणों से युक्त मेरी दैवीय शक्ति माया से पार पाना अत्यंत कठिन है किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे इसे सरलता से पार कर जाते हैं।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण संसार की माया की वास्तविकता, उसकी शक्ति, और उससे मुक्त होने के उपाय को स्पष्ट करते हैं:
1. माया – गुणमयी है
यह माया सत्व, रज और तम – इन तीन गुणों से बनी है।
यह हमें मोह, भ्रम, भोग और बंधन में बांधती है।
हम संसार को सत्य मान बैठते हैं और आत्मा को भूल जाते हैं।
2. यह माया ‘दैवी’ है
यह कोई साधारण माया नहीं, बल्कि ईश्वर की दैवी शक्ति है।
यह ईश्वर के अधीन है, पर उनकी इच्छानुसार काम करती है।
इसलिए यह संसार को जीव के लिए वास्तविक और आकर्षक बना देती है।
3. ‘दुरत्यया’ – यह अत्यंत कठिन है पार करना
साधारण साधना, बुद्धि, या तप से इसे पार करना लगभग असंभव है।
क्योंकि यह माया इतनी सूक्ष्म, व्यापक और गहन है कि जीव उसमें अनायास उलझ जाता है।
4. समाधान – ‘मामेव प्रपद्यन्ते’
भगवान श्रीकृष्ण समाधान भी दे देते हैं:
“जो लोग मेरी शरण में आते हैं, मेरा पूर्ण समर्पण करते हैं,”
वे इस माया को पार कर लेते हैं।
अर्थात् — माया से मुक्ति का एकमात्र उपाय है — परमात्मा की पूर्ण शरण।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- भगवान = माया के स्वामी हैं, जबकि जीव = माया के अधीन।
- यह श्लोक भक्ति योग का मूल सिद्धांत है —
ज्ञान से माया को समझा जा सकता है,
लेकिन भक्ति से ही पार किया जा सकता है। - ‘प्रपत्ति’ (पूर्ण समर्पण) ही माया-विनाश का एकमात्र साधन है।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द / तत्व | प्रतीकात्मक अर्थ |
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माया | संसारिक मोह, अज्ञान |
गुणमयी | सत्व – सुख, रज – क्रिया, तम – आलस्य |
दैवी | ईश्वर द्वारा नियंत्रित |
प्रपद्यन्ते | समर्पण, आत्मनिवेदन |
तरन्ति | पार जाना, बंधनों से मुक्ति |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- संसार का आकर्षण जितना सुंदर दिखता है, उतना ही वह बंधनकारक है।
- माया बुद्धि से नहीं, भक्ति से पराजित होती है।
- जो भगवान की शरण लेते हैं — उनके लिए संसार का बंधन बाधा नहीं, साधन बन जाता है।
- अहंकार त्याग कर, पूर्ण समर्पण करने पर ही मोक्ष संभव है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं जानता हूँ कि मेरी असली लड़ाई संसार से नहीं, माया से है?
- क्या मैंने भगवान की शरण को केवल भावनात्मक माना है, या उसे जीवन का केंद्र बनाया है?
- क्या मैं अपने जीवन में सत्त्व, रज, तम – इन तीनों गुणों से संचालित हो रहा हूँ?
- क्या मैं अपनी साधना के द्वारा भगवान की शरण में पूर्णतः समर्पित हुआ हूँ?
- क्या मैं माया को ही सत्य मान कर जीवन बिता रहा हूँ?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में हमें माया की सत्यता, शक्ति और समाधान – तीनों प्रदान करते हैं।
“यह माया मेरी ही है — पर यह कठिन है।
इसे पार करने के लिए मेरे शरणागत बनो — यही एकमात्र मार्ग है।”
यह श्लोक प्रत्येक साधक को चेताता है कि —
माया महासागर है, और जीवन उसकी लहरों में डूबने जैसा है।
केवल भगवान की नाव में बैठकर ही इस पार जाया जा सकता है।
“माया में नहीं उलझना है — माया के स्वामी की शरण में जाना है।”
– यही इस श्लोक का सनातन संदेश है।