मूल श्लोक – 23
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | हिन्दी अर्थ |
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अन्तवत् | नाशवान, सीमित |
फलं | फल, परिणाम |
तेषाम् | उन लोगों का |
तद् | वही |
भवति | होता है |
अल्प-मेधसाम् | जिनकी बुद्धि अल्प है, तुच्छ बुद्धिवाले |
देवान् | देवताओं को |
देव-यजः | देवताओं की पूजा करने वाले |
यान्ति | प्राप्त होते हैं, पहुँचते हैं |
मद्भक्ताः | मेरी भक्ति करने वाले |
यान्ति | प्राप्त होते हैं |
माम् | मुझे |
अपि | भी |
किन्तु ऐसे अल्पज्ञानी लोगों को प्राप्त होने वाले फल भी नश्वर होते हैं। जो लोग देवताओं की पूजा करते हैं, वे देव लोकों को जाते हैं जबकि मेरे भक्त मेरे लोक को प्राप्त करते हैं।

विस्तृत भावार्थ
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में यह स्पष्ट करते हैं कि भक्ति का लक्ष्य और उसका फल किस पर निर्भर करता है। कुछ लोग विविध इच्छाओं के वशीभूत होकर देवताओं की पूजा करते हैं, ताकि उन्हें तात्कालिक फल, सिद्धियाँ या भोग प्राप्त हों। किंतु वे फल सीमित होते हैं, उनका अंत निश्चित होता है — क्योंकि देवता स्वयं भी सृष्टि के चक्र में हैं।
इसलिए भगवान कहते हैं कि ऐसी पूजा अल्पबुद्धि का लक्षण है। क्योंकि वे स्थायी, अविनाशी परम लक्ष्य को छोड़कर नाशवान वस्तुओं की कामना करते हैं। जबकि जो भक्त भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति करते हैं, वे स्वयं उन्हें (परमात्मा को) प्राप्त करते हैं, जो अविनाशी हैं।
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक वैदिक बहुदेववाद और वेदांत के अद्वैत विचार का सामंजस्य कराता है। यहाँ यह बताया गया है कि देवताओं की पूजा अपने स्थान पर ठीक है, किंतु वह साधन का एक निम्न स्तर है। जब तक आत्मा परम सत्य की ओर उन्मुख नहीं होती, तब तक वह नश्वर इच्छाओं और सीमित अनुभवों तक ही सीमित रहती है।
अल्पमेधसः का प्रयोग यह दर्शाता है कि बुद्धिमत्ता केवल विद्या नहीं है — सच्ची बुद्धिमत्ता वह है जो नश्वर और नश्वरातीत (transient and eternal) में भेद कर सके।
प्रतीकात्मक अर्थ
पंक्ति | प्रतीकात्मक अर्थ |
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अन्तवत्तु फलं | सांसारिक इच्छाओं और भोगों का अंत निश्चित है |
अल्पमेधसाम् | जो जीवन के अंतिम लक्ष्य को नहीं समझते |
देवान्देवयजो यान्ति | जो जैसे आराध्य को चुनते हैं, वैसा ही फल पाते हैं |
मद्भक्ता यान्ति मामपि | जो ईश्वर को ही सर्वस्व मानते हैं, उन्हें ईश्वर की प्राप्ति होती है |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- ईश्वर भक्ति में विवेक आवश्यक है — केवल भावनाओं से नहीं, ज्ञान से युक्त होकर।
- छोटे-छोटे लाभों के लिए नश्वर देवताओं की आराधना स्थायी समाधान नहीं।
- जीवन का अंतिम लक्ष्य अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति है, न कि नश्वर सुख।
- हमारी आराधना हमें वैसी ही गति देती है — “जैसी भक्ति, वैसी प्राप्ति”।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मेरी भक्ति स्थायी और अविनाशी लक्ष्य की ओर है?
- क्या मैं केवल तात्कालिक सुखों के लिए पूजा करता हूँ?
- क्या मैं अपने बुद्धि विवेक से धर्म और अधर्म, नश्वर और नित्य में भेद करता हूँ?
- क्या मेरा ध्यान भौतिक फलों की ओर है, या आध्यात्मिक मोक्ष की ओर?
- क्या मैं “मद्भक्ता यान्ति मामपि” की ओर अग्रसर हूँ?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि पूजा और साधना का फल साधक के लक्ष्य और भावना पर निर्भर करता है। जो अल्प बुद्धि से तात्कालिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए देवताओं की आराधना करते हैं, उन्हें भी फल तो मिलता है, परंतु वह सीमित और नाशवान होता है।
परंतु जो भक्त अपनी भक्ति और विवेक से परमेश्वर को ही अंतिम लक्ष्य मानकर भक्ति करते हैं, उन्हें परमात्मा की प्राप्ति होती है — जो जन्म-मरण के चक्र से परे, शाश्वत और अविनाशी है।
यह श्लोक साधक को यह प्रेरणा देता है कि वह अपनी भक्ति को दिशा दे — तात्कालिक फल नहीं, परम लक्ष्य की ओर।