मूल श्लोक – 22
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | हिन्दी अर्थ |
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सः | वह (भक्त) |
तया श्रद्धया | उस श्रद्धा से, उस विश्वास के साथ |
युक्तः | युक्त होकर, प्रेरित होकर |
तस्य | उस (विशिष्ट देवता) का |
आराधनम् | आराधना, पूजा |
ईहते | प्रयत्न करता है, प्रयास करता है |
लभते | प्राप्त करता है |
च | और |
ततः | उससे, उस पूजा के परिणामस्वरूप |
कामान् | इच्छित भोग, कामनाएँ |
मया एव | मेरे द्वारा ही |
विहितान् | नियत किए हुए, प्रदान किए गए |
हि | निश्चय ही |
तान् | उन्हें (वे भोग, इच्छित फल) |
श्रद्धायुक्त होकर ऐसे भक्त विशेष देवता की पूजा करते हैं और अपनी वांछित वस्तुएँ प्राप्त करते हैं किन्तु वास्तव में ये सब लाभ मेरे द्वारा ही प्रदान किए जाते हैं।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण पूर्व श्लोकों की ही निरंतरता में एक और गूढ़ रहस्य स्पष्ट करते हैं।
वे बताते हैं कि जब कोई व्यक्ति किसी विशेष देवता की भक्ति करता है, तो वह अपनी प्रकृति के अनुसार उस देवता में श्रद्धा रखता है, और उसकी पूजा करता है। यह श्रद्धा यथार्थ या भ्रममूलक हो सकती है, लेकिन उसमें आंतरिक विश्वास होता है।
ऐसे व्यक्ति को जब उसकी इच्छाएँ पूरी होती दिखती हैं, तब वह उस देवता को ही फलदाता मानता है — लेकिन श्रीकृष्ण इस श्लोक में स्पष्ट करते हैं कि वह फल वास्तव में भगवान (परमात्मा) के द्वारा ही प्रदान किया गया होता है।
देवता केवल माध्यम होते हैं, लेकिन फल की वास्तविक व्यवस्था ब्रह्म (भगवान श्रीकृष्ण) ही करते हैं।
यह बात साधक के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है — कि चाहे वह किसी भी शक्ति या स्वरूप की आराधना करे, यदि उसे कुछ प्राप्त होता है, तो वह मूल स्रोत से ही आता है — और वह स्रोत एकमेव है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- यह श्लोक ‘एकत्व’ के सिद्धांत की पुष्टि करता है — कि सभी शक्तियों, देवताओं, रूपों के मूल में केवल एक ही परम सत्ता है।
- देवता उपासना के प्रतीक हैं, लेकिन फल की व्यवस्था ईश्वर के संकल्प से होती है।
- यह श्लोक भक्ति, कर्म और ज्ञान को समन्वित करता है — श्रद्धा से किया गया प्रयास जब फल देता है, तो उसका नियंता भगवान ही होते हैं।
- यह अद्वैत और भक्ति दोनों को एकसूत्र में जोड़ता है — “सर्वं खल्विदं ब्रह्म।”
प्रतीकात्मक अर्थ
पंक्ति | प्रतीकात्मक अर्थ |
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स तया श्रद्धया युक्तः | श्रद्धा से प्रेरित व्यक्ति |
तस्य आराधनम् ईहते | अपनी रुचि, संस्कार और कामनाओं के अनुसार पूजा करता है |
लभते च ततः कामान् | इच्छित फल प्राप्त करता है |
मया एव विहितान् हि तान् | लेकिन यह फल भगवान की इच्छा और विधान से ही संभव होता है |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- श्रद्धा का फल अवश्य मिलता है, लेकिन उसका अंतिम स्रोत परमात्मा होते हैं।
- कोई भी देवता, साधन या माध्यम अपने आप में सर्वशक्तिमान नहीं — वे भी ब्रह्म की इच्छा से ही कार्य करते हैं।
- ईश्वर हर क्रिया के अंतिम कर्ता हैं — चाहे वह पूजा हो, कामना हो या उसका फल।
- अतः हमें फल से अधिक परम स्रोत की ओर झुकना चाहिए।
- श्रद्धा महत्वपूर्ण है, लेकिन विवेकयुक्त श्रद्धा और सार्वभौमिक दृष्टि उससे भी अधिक आवश्यक है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मेरी श्रद्धा केवल एक देवता पर आधारित है या समग्र ब्रह्म पर?
- जब मेरी इच्छाएँ पूरी होती हैं, तो क्या मैं उस परम स्रोत को पहचान पाता हूँ?
- क्या मैं केवल फल प्राप्त करने में रुचि रखता हूँ या स्रोत (ईश्वर) की शरण लेना चाहता हूँ?
- क्या मैं अपने पूजा के उद्देश्य को स्वार्थ से परे रखता हूँ?
- क्या मेरी श्रद्धा मुझे सत्य के और निकट ले जा रही है?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि श्रद्धा से युक्त व्यक्ति अपनी प्रवृत्ति के अनुसार जिस देवता की पूजा करता है, उसे अपने इच्छित फल भी प्राप्त होते हैं — लेकिन यह फल उस देवता से नहीं, बल्कि स्वयं भगवान के द्वारा नियत होते हैं।
यह श्लोक साधक को सतर्क करता है — कि वह भले ही किसी भी रूप की आराधना करे, परंतु अंतिम लक्ष्य परम ब्रह्म का साक्षात्कार और शरणागति होनी चाहिए।
सच्ची श्रद्धा वही है जो माध्यम के पार जाकर स्रोत की अनुभूति कराए — और वह स्रोत भगवान स्वयं हैं।