मूल श्लोक – 24
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | हिन्दी अर्थ |
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अव्यक्तम् | जो इन्द्रियों से परे है, अप्रकट |
व्यक्तिम् आपन्नम् | साकार रूप में प्रकट हुआ |
मन्यन्ते | समझते हैं, मानते हैं |
माम् | मुझे (भगवान श्रीकृष्ण को) |
अबुद्धयः | अल्पबुद्धि वाले, सीमित समझ वाले |
परम् भावम् | मेरी परम दिव्य प्रकृति |
अजानन्तः | न जानने वाले, अज्ञानी |
मम | मेरी |
अव्ययम् | अविनाशी, जिसे नष्ट नहीं किया जा सकता |
अनुत्तमम् | सर्वोत्तम, जिसके ऊपर कुछ नहीं |
बुद्धिहीन मनुष्य सोचते हैं कि मैं परमेश्वर पहले निराकार था और अब मैंने यह साकार व्यक्तित्त्व धारण किया है, वे मेरे इस अविनाशी और सर्वोत्तम दिव्य स्वरूप की प्रकृत्ति को नहीं जान पाते।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण यह बताते हैं कि जिनकी बुद्धि सीमित है, जो केवल इंद्रियों और प्रत्यक्ष अनुभव तक सीमित रहते हैं, वे मुझे केवल एक व्यक्ति, एक अवतारी रूप, मानव रूप में देखते हैं।
वे यह नहीं समझ पाते कि यह साकार रूप परब्रह्म की अभिव्यक्ति मात्र है — एक माध्यम है, जिसके पीछे अव्यक्त, शाश्वत, अद्वितीय, और अपरिवर्तनशील सत्ता है।
“अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं” — यानी जो ब्रह्म तत्व सामान्यतः इन्द्रियों की पकड़ में नहीं आता, वह प्रेमवश, करुणावश सगुण रूप में प्रकट होता है।
लेकिन अबुद्ध लोग इस अवतार को ही संपूर्ण मान लेते हैं, और उसकी बाह्य सीमाओं में ही उलझे रहते हैं।
“परं भावम् अजानन्तः” — वे यह नहीं समझते कि यह रूप केवल ब्रह्म का व्यवहारिक प्रकट रूप है, न कि उसका सम्पूर्ण स्वरूप।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- यह श्लोक ब्रह्म–सगुण–निर्गुण के विषय में एक अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धांत को प्रकट करता है।
- ईश्वर की अनंतता, अव्यक्तता, और अव्ययता को केवल अनुभूति और ज्ञान से ही समझा जा सकता है — तर्क या दृष्टिगोचर रूप से नहीं।
- अल्पबुद्धि वाले मनुष्य केवल दृश्य संसार, रूप, व्यक्तित्व, मूर्तियों, नामों तक ही रुक जाते हैं — वे ‘रूप के पार’ नहीं जा पाते।
- यह श्लोक माया और ईश्वर के सगुण-निर्गुण स्वरूप के बीच के अंतर को भी स्पष्ट करता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
पंक्ति | प्रतीकात्मक अर्थ |
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अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नम् | परम सत्य (ब्रह्म) जब अवतार रूप में प्रकट होता है |
मन्यन्ते माम् अबुद्धयः | सीमित दृष्टि वाले उसे केवल मनुष्य रूप में ही समझते हैं |
परं भावम् अजानन्तः | वे उसकी दिव्यता, ब्रह्मत्व को नहीं पहचान पाते |
मम अव्ययम् अनुत्तमम् | जो मेरी नित्य, शाश्वत, सर्वोच्च स्थिति है, वह उनकी समझ से बाहर है |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- सच्ची भक्ति केवल रूप की पूजा नहीं, बल्कि रूप में छिपे अरूप की अनुभूति है।
- ईश्वर को केवल साकार या केवल निराकार में बाँधना – यह सीमित सोच का परिचायक है।
- ज्ञान का अर्थ है — ईश्वर के सगुण और निर्गुण दोनों स्वरूपों की एकत्व दृष्टि।
- भगवान का अवतारी रूप केवल हमारी समझ और संपर्क के लिए है — उनका मूल स्वरूप तो अव्यक्त, अनंत और अविनाशी है।
- साधक को चाहिए कि वह रूप के माध्यम से रूपातीत की खोज करे।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं भगवान को केवल उनके रूप, नाम या मूर्ति तक सीमित मानता हूँ?
- क्या मैंने कभी ‘परं भावम्’ — उस दिव्यता का चिंतन किया है जो सब रूपों के पार है?
- क्या मेरी भक्ति केवल भावनात्मक है या ज्ञानयुक्त भी?
- क्या मैं ईश्वर को केवल अवतारी व्यक्ति मानता हूँ या उस रूप के पीछे छिपे सत्य को भी जानता हूँ?
- क्या मैं “अनुत्तमम् अव्ययम्” — उस सर्वोत्तम, अनश्वर ईश्वर के साक्षात्कार के लिए तत्पर हूँ?
निष्कर्ष
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि जिनकी बुद्धि सीमित है, वे उन्हें केवल एक मानव रूप में देखते हैं, और उनकी अव्यक्त, सर्वोत्तम, अनश्वर सत्ता को नहीं पहचान पाते।
परंतु भगवान का यह रूप केवल उनकी करुणा का प्रतीक है — वास्तविकता में वे सर्वव्यापक, ब्रह्मस्वरूप, अव्यक्त, और अद्वितीय हैं।
साधक को प्रेरणा मिलती है कि वह रूप की सीमा में न अटके, बल्कि उस रूप के माध्यम से उस “अनुत्तमम् अव्ययम् ब्रह्म” की अनुभूति करे — जो सदा, सर्वत्र और सर्वस्व है।