Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 7, Sloke 28

मूल श्लोक – 28

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥

शब्दार्थ

संस्कृत शब्दहिन्दी अर्थ
येषाम्जिन लोगों का
तुपरंतु, वास्तव में
अन्तगतम्समाप्त हो चुका है
पापम्पाप, अधर्मजन्य कर्मों के संस्कार
जनानाम्उन लोगों का
पुण्यकर्मणाम्पुण्य कर्म करने वाले, धर्मशील
तेवे ही
द्वन्द्व-मोह-निर्मुक्ताःद्वैत और मोह से मुक्त हुए
भजन्तेभक्ति करते हैं, ध्यानपूर्वक उपासना करते हैं
माम्मेरी (भगवान श्रीकृष्ण की)
दृढव्रताःदृढ़ संकल्प वाले, निष्ठा से युक्त

लेकिन पुण्य कर्मों में संलग्न रहने से जिन व्यक्तियों के पाप नष्ट हो जाते हैं, वे मोह के द्वन्द्वों से मुक्त हो जाते हैं। ऐसे लोग दृढ़ संकल्प के साथ मेरी पूजा करते हैं।

विस्तृत भावार्थ

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि सच्ची भक्ति, शुद्ध मन और दृढ़ संकल्प से तभी संभव है जब मनुष्य के भीतर के पाप (वासनाएं, अहंकार, आसक्ति) समाप्त हो चुके हों।

“अन्तगतं पापम्” — अर्थात जिनके भीतर संचित पाप-प्रवृत्तियाँ समाप्त हो गई हैं।
ये पाप केवल बाह्य कर्म नहीं होते, बल्कि मनोविकार, इच्छाएँ, मोह, और द्वेष जैसी आंतरिक गुत्थियाँ होती हैं।

“पुण्यकर्मणाम्” — वे ही लोग, जिन्होंने अनेक जन्मों में पुण्य कर्म किए हैं, जिनकी प्रवृत्ति धर्ममयी रही है।

जब पाप समाप्त हो जाते हैं और पुण्य उदित होते हैं, तब व्यक्ति द्वन्द्व (जैसे सुख-दुख, लाभ-हानि, मान-अपमान) के मोह से मुक्त होता है।

और तब ही वह दृढ़व्रत होकर ईश्वर की शुद्ध भक्ति में प्रवृत्त होता है।

दार्शनिक दृष्टिकोण

  • यह श्लोक कर्म, भक्ति और मन की शुद्धता — तीनों के पारस्परिक संबंध को दर्शाता है।
  • भगवान की भक्ति कोई सांयोगिक घटना नहीं है — वह जीवन की शुद्धि, विवेक और चिर-साधना का फल है।
  • जब मनुष्य के भीतर द्वैत का मोह, यानी यह मेरा है- वह तेरा है, यह अच्छा है – वह बुरा है — समाप्त हो जाता है, तब वह एकत्व को देखता है और तभी ईश्वर की निःस्वार्थ भक्ति संभव होती है।
  • भक्ति का बीज पुण्यकर्म में बोया जाता है, और पाप के अंत के बाद वह पुष्पित होता है।

प्रतीकात्मक अर्थ

पंक्तिप्रतीकात्मक अर्थ
येषां तु अन्तगतं पापम्जिनके भीतर के अधर्म, मोह और विकार समाप्त हो चुके हैं
पुण्यकर्मणाम् जनानाम्जिन्होंने धार्मिक और आत्मकल्याणकारी कर्म किए हैं
द्वन्द्व-मोह-निर्मुक्ताःजो सुख-दुख, मान-अपमान जैसे द्वैत से ऊपर उठ चुके हैं
भजन्ते मां दृढव्रताःवे पूरी निष्ठा और संकल्प के साथ मेरी भक्ति करते हैं

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • भगवान की सच्ची भक्ति वही कर सकता है जिसका मन निर्मल हो।
  • दृढ़व्रतता (संकल्प) केवल शुभ कर्मों की आधारशिला पर ही खड़ी होती है।
  • मोह और द्वैतभाव — ये ही व्यक्ति को ईश्वर से दूर रखते हैं।
  • भक्ति का मार्ग खुलता है जब वासनाएं शांत होती हैं और चित्त एकाग्र होता है।
  • अपने जीवन को पुण्यकर्मों से भरना और पापवृत्तियों से मुक्त करना ही भक्त बनने की पूर्वशर्त है।

आत्मचिंतन के प्रश्न

  1. क्या मेरा मन अभी भी द्वन्द्व और मोह से ग्रस्त है?
  2. क्या मैं अपने भीतर के पापों — जैसे ईर्ष्या, अहंकार, कामना — को पहचानता और नष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ?
  3. क्या मेरी भक्ति संकल्पबद्ध और स्थिर है, या अवसर के अनुसार बदलती रहती है?
  4. क्या मैं पुण्यकर्मों द्वारा मन की शुद्धि के लिए सचेत रूप से प्रयास करता हूँ?
  5. क्या मेरी भक्ति निःस्वार्थ और समर्पित है?

निष्कर्ष

भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि सच्ची, स्थायी और दृढ़ भक्ति का मार्ग उन लोगों के लिए खुलता है जिन्होंने अपने पापों को पुण्यकर्मों से परास्त किया है।
वे ही व्यक्ति द्वैत और मोह की जंजीरों को तोड़कर निश्चल और एकाग्र चित्त से ईश्वर की आराधना करते हैं।

यह श्लोक साधक को यह शिक्षा देता है कि भक्ति केवल भावना नहीं, बल्कि तप, संयम, और आंतरिक शुद्धता की पूर्ण साधना है।

दृढ़ संकल्प, मोह से मुक्ति, और पुण्य का संचय — यही भक्ति के मूल स्तंभ हैं।

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