मूल श्लोक – 29
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्य तद्विदुः कृत्स्न्मध्यात्म कर्म चाखिलम् ॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | हिन्दी अर्थ |
---|---|
जरा | वृद्धावस्था |
मरण | मृत्यु |
मोक्षाय | मोक्ष के लिए, छुटकारा पाने हेतु |
माम् | मुझे (भगवान श्रीकृष्ण को) |
आश्रित्य | आश्रय लेकर, शरण में आकर |
यतन्ति | प्रयास करते हैं |
ये | जो लोग |
ते | वे |
ब्रह्म | ब्रह्म (परम सत्य) |
तत् विदुः | उसे जान लेते हैं |
कृत्स्नम् | सम्पूर्ण |
अध्यात्मम् | आत्मा संबंधी ज्ञान, आध्यात्मिक विज्ञान |
कर्म | कर्तव्य, शुभ-अशुभ कर्म |
च | और |
अखिलम् | सम्पूर्ण |
जो मेरी शरण ग्रहण करते हैं, वे बुढ़ापे और मृत्यु से छुटकारा पाने की चेष्टा करते हैं, वे ब्रह्म, अपनी आत्मा और समस्त कार्मिक गतिविधियों के क्षेत्र को जान जाते हैं।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण उन साधकों की महिमा बताते हैं जो केवल सांसारिक सुख के लिए नहीं, जरा और मरण से मुक्ति — अर्थात मोक्ष के लिए भक्ति करते हैं। ये साधक ईश्वर को केवल वरदाता नहीं मानते, बल्कि परम तत्त्व, ब्रह्म, और अध्यात्म का केंद्र मानते हैं।
जो लोग इस उद्देश्य से ईश्वर की शरण लेते हैं, वे केवल धार्मिक कर्मकांड तक सीमित नहीं रहते। वे जीवन के मूल तत्वों को समझते हैं —
- ब्रह्म (परम तत्त्व) क्या है,
- अध्यात्म क्या है — आत्मा का स्वरूप और उसका ईश्वर से संबंध,
- और कर्म का व्यापक रहस्य — क्यों, कैसे और किस उद्देश्य से कर्म करना चाहिए।
यहाँ ‘माम आश्रित्य’ (मेरी शरण में आकर) बहुत महत्वपूर्ण है — केवल दर्शनशास्त्र पढ़ना पर्याप्त नहीं, भगवान की कृपा से ही यह ज्ञान सुलभ होता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक अध्यात्म, ब्रह्मज्ञान, और कर्मयोग के गहरे संबंध को स्पष्ट करता है। मोक्ष के इच्छुक साधक को न केवल कर्म करना है, बल्कि उस कर्म के पीछे के तत्व, आत्मा की स्थिति, और ब्रह्म की वास्तविकता को भी जानना होता है।
यह श्लोक भगवद्भक्ति को केवल भावनात्मक स्तर पर नहीं, अपितु बौद्धिक और आत्मिक स्तर पर भी प्रस्तुत करता है।
ज्ञान और भक्ति, दोनों की आवश्यकता है — तभी “कृत्स्नम् अध्यात्मं कर्म चाखिलम्” की उपलब्धि संभव है।
प्रतीकात्मक अर्थ
पंक्ति | प्रतीकात्मक अर्थ |
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जरामरणमोक्षाय | केवल जीवन में नहीं, मृत्यु के पार भी मुक्ति की आकांक्षा |
मामाश्रित्य | ईश्वर को पूर्ण आश्रय बनाना — ज्ञान और शरणागति दोनों |
यतन्ति | केवल इच्छा नहीं, सतत प्रयास |
ते ब्रह्म तद्विदुः | वे परम सत्य (ब्रह्म) को जान लेते हैं |
कृत्स्नम् अध्यात्मं कर्म | संपूर्ण आत्मविद्या और समस्त कर्म के रहस्य को जानना |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- सच्ची भक्ति वही है जो केवल भोग के लिए नहीं, मोक्ष के लिए हो।
- ईश्वर की शरणागति केवल दुख से छुटकारा नहीं देती, बल्कि ज्ञान भी देती है।
- ज्ञान, भक्ति और कर्म — तीनों का संतुलन ही आत्ममुक्ति की ओर ले जाता है।
- जो जीवन, आत्मा और ब्रह्म को समग्रता से समझता है, वही कर्म के बंधन से मुक्त होता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मेरी साधना केवल सांसारिक सुखों के लिए है, या मोक्ष की ओर?
- क्या मैं जरा और मरण को जीवन की वास्तविकता मानकर उससे मुक्ति चाहता हूँ?
- क्या मैं भगवान की शरण को केवल भावनात्मक आश्रय मानता हूँ, या ज्ञान का स्रोत?
- क्या मैंने अपने कर्म, आत्मा और ब्रह्म को समझने का प्रयास किया है?
- क्या मेरा साधन पथ मुझे ‘कृत्स्नम् अध्यात्मं कर्म चाखिलम्’ की ओर ले जा रहा है?
निष्कर्ष
यह श्लोक साधक को साधना की सर्वोच्च दिशा दिखाता है — केवल धर्म के पालन तक सीमित न रहकर, आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान और कर्म के रहस्य को समझने की ओर बढ़ना।
ईश्वर की सच्ची शरण वही है जहाँ से ज्ञान, मोक्ष और कर्म की समग्रता सुलभ होती है।
जो साधक भगवान की शरण में आकर आत्मा के स्वभाव, कर्म के स्वरूप, और ब्रह्म के सत्य को जानने का प्रयास करता है, वही जन्म-जरा-मरण से परे जाकर मोक्ष को प्राप्त करता है।
भक्ति, ज्ञान और कर्म — तीनों का समन्वय ही मोक्ष का मार्ग है।