मूल श्लोक – 1
अर्जुन उवाच ।
किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम ।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते ॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | हिन्दी अर्थ |
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अर्जुन उवाच | अर्जुन ने कहा |
किम् | क्या |
तत् ब्रह्म | वह ब्रह्म क्या है |
किम् अध्यात्मम् | अध्यात्म क्या है (आत्मस्वरूप क्या है) |
किम् कर्म | कर्म क्या है |
पुरुषोत्तम | हे पुरुषोत्तम (श्रेष्ठ पुरुष, भगवान श्रीकृष्ण) |
अधिभूतम् | अधिभूत क्या है (भौतिक तत्व क्या हैं) |
च | और |
प्रोक्तम् | कहा गया है |
अधिदैवम् | अधिदैव क्या है (दैविक सत्ता) |
किम् उच्यते | क्या कहा गया है |
अर्जुन ने कहाः हे भगवान! ‘ब्रह्म’ क्या है? ‘अध्यात्म’ क्या है और कर्म क्या है? ‘अधिभूत’ को क्या कहते हैं और ‘अधिदैव’ किसे कहते हैं?

विस्तृत भावार्थ
यह श्लोक भगवद्गीता के आठवें अध्याय (अक्षर ब्रह्म योग) की शुरुआत करता है। अर्जुन, जिनके भीतर अब जिज्ञासा और आध्यात्मिक समझ बढ़ रही है, भगवान श्रीकृष्ण से गहराई से कुछ महत्वपूर्ण तत्वों के बारे में पूछते हैं।
उनके प्रश्न मूलतः छह विषयों से जुड़े हुए हैं:
- ब्रह्म – वह शाश्वत, अविनाशी परम तत्त्व क्या है?
- अध्यात्म – आत्मा और उसके स्वरूप को अध्यात्म कहा जाता है; वह क्या है?
- कर्म – वह कर्म क्या है जिससे संसार चलता है?
- अधिभूत – यह स्थूल संसार क्या है और उसका सत्य क्या है?
- अधिदैव – देवत्व या ब्रह्माण्डीय सत्ता क्या है जो हमारे शरीर और ब्रह्माण्ड पर शासन करती है?
- (यहाँ छठा प्रश्न अगले श्लोक में है — “अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन”) जिसे अर्जुन अगले श्लोक में पूछते हैं।
यह श्लोक यह दर्शाता है कि अर्जुन अब केवल युद्ध की नैतिकता तक सीमित नहीं रह गए हैं, बल्कि उन्हें अब अंतिम सत्य (Ultimate Reality) की खोज है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
इस श्लोक में अर्जुन के भीतर जागी दार्शनिक विवेकबुद्धि को देखा जा सकता है। अब वह ईश्वर, आत्मा, कर्म और ब्रह्माण्ड की गहरी परिभाषाओं की ओर उन्मुख हो रहे हैं।
यह श्लोक ईश्वर-अध्यात्म-कर्म के त्रिकोणीय संबंध को समझने की शुरुआत है। भगवद्गीता का यह अध्याय ‘अक्षर ब्रह्म योग’ कहलाता है, क्योंकि इसमें अक्षर (जो कभी नष्ट नहीं होता) और ब्रह्म की संपूर्ण व्याख्या आती है।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द / पंक्ति | प्रतीकात्मक अर्थ |
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किं तद् ब्रह्म | अंतिम सत्य क्या है? — ईश्वर के निराकार स्वरूप की खोज |
किमध्यात्मं | आत्मा की खोज — “मैं कौन हूँ?” का प्रश्न |
किं कर्म | जीवन और सृष्टि की गति का रहस्य — कर्तव्य का तत्त्व |
अधिभूतं | दृश्य जगत — संसार की वास्तविकता और उसका क्षणभंगुर स्वरूप |
अधिदैवं | ईश्वरीय नियंत्रण और सूक्ष्म सत्ता — ग्रह, देवता, चेतना आदि |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- यह श्लोक दर्शाता है कि सच्चा शिष्य केवल युद्ध या धर्म के क्षेत्र में नहीं, बल्कि आध्यात्मिक बोध की दिशा में भी गंभीर होता है।
- जीवन के मूल प्रश्न — “मैं कौन हूँ?”, “ईश्वर क्या हैं?”, “संसार क्या है?”, “कर्म का रहस्य क्या है?” — इनका उत्तर ढूँढना ही अध्यात्म का आरंभ है।
- जब भीतर से जिज्ञासा जगती है, तभी आत्मबोध की यात्रा आरंभ होती है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैंने कभी स्वयं से यह पूछा है — ब्रह्म क्या है?
- क्या मैं अपने आत्मस्वरूप को जानने का प्रयास कर रहा हूँ?
- क्या मैं कर्म के गहरे अर्थ को समझकर जीवन जी रहा हूँ?
- क्या मैं संसार को केवल भोग की दृष्टि से देखता हूँ या आत्मबोध की दृष्टि से?
- क्या मेरी भक्ति केवल भावनात्मक है, या दार्शनिक विवेक से भी युक्त है?
निष्कर्ष
यह श्लोक आध्यात्मिक जिज्ञासा का आदर्श उदाहरण है। अर्जुन अब केवल भावनाओं में नहीं, विवेक में भी जाग्रत हो रहे हैं। वे अब गीता के मुख्य तत्त्वों को गहराई से जानने के लिए तत्पर हैं।
भगवद्गीता का यह चरण साधक को प्रेरणा देता है कि वह केवल कर्म न करे, बल्कि उसके मूल स्वरूप, आत्मा, ईश्वर, और सृष्टि के रहस्य को भी जाने।
ज्ञान की शुरुआत प्रश्न से होती है। और जब प्रश्न ब्रह्म, आत्मा और कर्म से संबंधित हो, तो उत्तर भी मोक्ष तक ले जाते हैं।