मूल श्लोक – 30
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | हिन्दी अर्थ |
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सः | वह (व्यक्ति) |
अधिभूत | समस्त भौतिक (स्थूल) तत्वों का अधिष्ठाता |
अधिदैवम् | समस्त देवताओं का अधिपति |
मां | मुझे (भगवान श्रीकृष्ण को) |
अधियज्ञम् | यज्ञों का नियंता, यज्ञस्वरूप परमात्मा |
च | और |
ये विदुः | जो जान लेते हैं, जो तत्वज्ञान प्राप्त करते हैं |
प्रयाणकाले | मृत्यु के समय, अंतिम क्षण में |
अपि | भी |
मां | मुझे |
ते विदुः | वे मुझे जान लेते हैं |
युक्तचेतसः | एकाग्रचित्त, समाहित मन वाले |
वे जो मुझे ‘अधिभूत’ प्रकृति के तत्त्व के सिद्धान्त और ‘अधिदेव’ देवतागण तथा ‘अधियज्ञ’ यज्ञों के नियामक के रूप में जानते हैं, ऐसी प्रबुद्ध आत्माएँ सदैव यहाँ तक कि अपनी मृत्यु के समय भी मेरी पूर्ण चेतना में लीन रहती हैं।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण उस पूर्ण ज्ञानी की बात करते हैं जो ईश्वर को सभी स्तरों पर जान लेता है —
- अधिभूत: वह जो सम्पूर्ण भौतिक जगत (पंचमहाभूत, शरीर, तत्व आदि) में व्याप्त है।
- अधिदैव: वह जो समस्त देवशक्तियों (इंद्र, अग्नि, वरुण आदि) के मूल में है।
- अधियज्ञ: वह जो यज्ञों का नियामक, समर्थक और फलदाता है — स्वयं यज्ञस्वरूप भगवान।
जो साधक इन तीनों स्तरों पर भगवान को पहचानता है, और अपने चेतन को भगवान से जोड़कर साधना करता है — वह केवल जीवन में ही नहीं, बल्कि प्रयाणकाल (मरण के समय) भी भगवान को याद करता है।
यही स्मरण उसे मोक्ष का मार्ग देता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- यह श्लोक जीवन और मृत्यु — दोनों के संदर्भ में ईश्वर-साक्षात्कार को महत्व देता है।
- जीवन भर की साधना का चरम बिंदु है — मृत्यु के क्षण में भगवान का स्मरण।
- केवल नाम-जप या कर्मकांड नहीं, बल्कि तीन स्तरों पर ईश्वर के स्वरूप की पहचान ही सच्चे योग का आधार है:
- भौतिक (अधिभूत),
- दैविक (अधिदैव),
- यज्ञमयी चेतना (अधियज्ञ)।
- युक्तचित्त — अर्थात जिसका मन किसी अन्य वस्तु, इच्छा या विकार से नहीं भटका हो — वही मृत्यु के समय भी प्रभु को स्मरण कर पाता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
श्लोकांश | प्रतीकात्मक अर्थ |
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अधिभूताधिदैवं मां | भगवान को सभी स्थूल (भौतिक) और सूक्ष्म (दैविक) शक्तियों का मूल मानना |
अधियज्ञं च ये विदुः | जो ईश्वर को समस्त यज्ञों के केंद्र में देखते हैं |
प्रयाणकालेऽपि च मां | मृत्यु के समय भी जिनका ध्यान भगवान में एकाग्र रहता है |
ते विदुः युक्तचेतसः | वे ही ज्ञानी हैं, जिनका मन भगवान से अटूट रूप से जुड़ा होता है |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- सच्चा साधक वही है जो भगवान को सभी रूपों में — प्रकृति, देवता, और यज्ञ — में देखता है।
- मृत्यु के समय की स्थिति, स्मृति और चेतना का स्तर — यह निश्चित करता है कि आत्मा की आगे की गति क्या होगी।
- युक्तचेतसः बनना — यानी साधना से मन को स्थिर, शुद्ध और भगवानमय बनाना — मोक्ष का आधार है।
- ईश्वर को केवल एक ‘देवता’ नहीं, बल्कि संपूर्ण सत्ता के रूप में जानना आवश्यक है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैंने भगवान को केवल एक रूप में देखा है या समस्त सत्ता के रूप में?
- क्या मेरी साधना इतनी गहन है कि मृत्यु के समय भी मेरा मन ईश्वर में रमा रहे?
- क्या मैं अधिभूत (शरीर), अधिदैव (देवशक्तियाँ), और अधियज्ञ (कर्म) में ईश्वर का अनुभव करता हूँ?
- क्या मेरा मन युक्तचित्त है — विचलन से मुक्त और ईश्वर में स्थिर?
- क्या मेरा जीवन मुझे उस अंतिम क्षण की तैयारी करा रहा है?
निष्कर्ष
श्रीकृष्ण इस श्लोक में कहते हैं कि जो ज्ञानी साधक भगवान को समस्त भौतिक, दैविक और यज्ञ स्वरूप के रूप में जानता है, और उसका मन ईश्वर में स्थिर रहता है —
वह मृत्यु के समय भी भगवान का साक्षात्कार करता है।
यह श्लोक साधक को यह प्रेरणा देता है कि उसकी साधना केवल जन्म भर के लिए नहीं, बल्कि मृत्यु के क्षण को भी दिव्य बनाना चाहिए।
सत्य यही है — जो मृत्यु के समय याद आता है, वही आत्मा का अगला गंतव्य बनता है।
इसलिए जीवनभर युक्तचित्त बनकर भगवान के समग्र स्वरूप का ज्ञान और भजन करना ही गीता का श्रेष्ठ उपदेश है।