Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 8, Sloke 15

मूल श्लोक – 15

मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् ।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥

शब्दार्थ

संस्कृत शब्दहिन्दी अर्थ
माम् उपेत्यमुझे प्राप्त होकर, मेरे समीप पहुँचकर
पुनर्जन्मपुनः जन्म, बार-बार जन्म लेना
दुःखालयम्दुःख का घर, दुखों से भरा संसार
अशाश्वतम्अस्थायी, न टिकने वाला
न आप्नुवन्तिप्राप्त नहीं करते, नहीं पाते
महात्मानःमहान आत्माएँ, भगवान में लीन भक्त
संसिद्धिम्पूर्णता, सिद्धि, मोक्ष
परमाम्सर्वोच्च, श्रेष्ठ
गताःप्राप्त कर चुके, पहुँचे हुए

मुझे प्राप्त कर महान आत्माएँ फिर कभी इस संसार में पुनः जन्म नहीं लेतीं जो अनित्यऔर दु:खों से भरा है। वे पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर चुकी होती हैं।

विस्तृत भावार्थ

भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में महात्मा की अवस्था और मोक्ष का स्वरूप स्पष्ट करते हैं।
यहाँ “महात्मा” का अर्थ केवल विद्वान व्यक्ति नहीं, बल्कि वह है जिसका हृदय ईश्वर से पूर्ण रूप से जुड़ा हुआ है।

ऐसे महात्मा जब परमेश्वर को प्राप्त हो जाते हैं, तब वे संसार के पुनर्जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाते हैं।
यह संसार “दुःखालयम् अशाश्वतम्” — अर्थात दुःख का घर और अस्थायी है।
यहाँ सुख क्षणिक है और प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है।

परंतु जो ईश्वर के निकट पहुँच गया — “मामुपेत्य” — वह अब इस परिवर्तनशील जगत में नहीं लौटता, क्योंकि उसने अपनी आत्मा को ब्रह्म में विलीन कर दिया है।
उसने परम सिद्धि — “संसिद्धिं परमां गतः” — को प्राप्त कर लिया है, जो मोक्ष या ईश्वर-सायुज्य कहलाती है।

यह श्लोक हमें यह भी सिखाता है कि मुक्ति कोई काल्पनिक अवस्था नहीं, बल्कि वह चेतना की सर्वोच्च स्थिति है जहाँ आत्मा को न पुनर्जन्म का भय रहता है, न दुःख का अनुभव।

दार्शनिक दृष्टिकोण

इस श्लोक में श्रीकृष्ण संसार की अस्थिरता और परम प्राप्ति की शाश्वतता का विरोधाभास प्रस्तुत करते हैं।

  • “दुःखालयम् अशाश्वतम्” यह संसार माया से निर्मित है, जहाँ सुख क्षणिक और दुःख स्थायी है।
  • “मामुपेत्य” जब आत्मा ब्रह्म को प्राप्त करती है, तब उसका व्यक्तिगत अहं समाप्त हो जाता है।
  • यह अवस्था निर्वाण, मोक्ष, या कैवल्य की प्रतीक है — जहाँ पुनर्जन्म का प्रश्न ही नहीं उठता।

दार्शनिक दृष्टि से, यह श्लोक आत्मा की यात्रा के अंतिम लक्ष्य को दर्शाता है — जहाँ वह अपनी शुद्ध स्वरूप में स्थित होती है, ब्रह्म के साथ एकत्व प्राप्त करती है।

प्रतीकात्मक अर्थ

श्लोकांशप्रतीकात्मक अर्थ
मामुपेत्यईश्वर की प्राप्ति, आत्मा का परमात्मा से मिलन
पुनर्जन्ममाया और कर्म के चक्र में बार-बार फँसना
दुःखालयम् अशाश्वतम्यह संसार दुःखों और अस्थिरता से भरा हुआ है
नाप्नुवन्ति महात्मानःजो सच्चे भक्त हैं, वे इस संसार में फिर नहीं लौटते
संसिद्धिं परमां गताःपरम सिद्धि, अर्थात् मुक्ति — जहाँ आत्मा शाश्वत शांति में स्थित होती है

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • संसार में सुख क्षणिक है, परंतु ईश्वर की प्राप्ति स्थायी आनंद का स्रोत है।
  • सच्चा साधक वही है जो जीवन के दुःखों और अस्थिरता से ऊपर उठकर भगवान को अपना एकमात्र आश्रय बनाता है।
  • यह श्लोक हमें याद दिलाता है कि मृत्यु अंत नहीं, बल्कि मुक्ति की दहलीज हो सकती है — यदि जीवन ईश्वरमय हो।
  • महात्मा बनने का अर्थ केवल ज्ञान प्राप्त करना नहीं, बल्कि ईश्वर के प्रति प्रेम और समर्पण में लीन होना है।
  • संसार की अस्थिरता को समझना ही वैराग्य की पहली सीढ़ी है, और ईश्वर-प्राप्ति उसकी अंतिम मंज़िल।

आत्मचिंतन के प्रश्न

  1. क्या मैं इस अस्थायी संसार को स्थायी मानकर उसमें लिप्त हूँ?
  2. क्या मेरे जीवन का लक्ष्य केवल सांसारिक सुख है या परम सिद्धि की खोज भी है?
  3. क्या मैं ईश्वर को पाने के लिए अपने मन, वाणी और कर्म को शुद्ध कर रहा हूँ?
  4. क्या मैं मृत्यु को अंत मानता हूँ या मुक्ति का अवसर?
  5. क्या मेरे जीवन में वैराग्य, भक्ति और समर्पण का संतुलन है?

निष्कर्ष

भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में मानव जीवन की सर्वोच्च प्राप्ति का रहस्य प्रकट करते हैं —
“जो ईश्वर को प्राप्त हो जाता है, वह इस दुःखमय संसार में फिर नहीं लौटता।”

जीवन का उद्देश्य केवल जन्म-मृत्यु के चक्र में घूमना नहीं, बल्कि उस अवस्था तक पहुँचना है जहाँ आत्मा सदा के लिए ईश्वर में लीन हो जाए।

अतः साधक को चाहिए कि वह भक्ति, साधना, और ज्ञान के मार्ग पर अग्रसर होकर अपने जीवन को “मामुपेत्य” — भगवान की प्राप्ति — के योग्य बनाए।

जो भगवान को पा लेता है, वह सब पा लेता है।
यही परम सिद्धि, यही परम शांति, और यही भगवद्गीता का सार है।

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