मूल श्लोक – 20
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातन:।
य: स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति॥
शब्दार्थ
| संस्कृत शब्द | हिन्दी अर्थ |
|---|---|
| पर: तस्मात् | उस (अव्यक्त) से परे |
| तु | किन्तु |
| भाव: | सत्ता, स्थिति, स्वरूप |
| अन्य: | दूसरा, भिन्न |
| अव्यक्तात् | अव्यक्त से भी |
| सनातन: | शाश्वत, अनादि-अनंत |
| य: | जो |
| स: | वह |
| सर्वेषु | सभी में, सब प्राणियों में |
| भूतेषु | प्राणियों में, भूतों में |
| नश्यत्सु | नष्ट होते हुए भी |
| न विनश्यति | नष्ट नहीं होता, अविनाशी रहता है |
व्यक्त और अव्यक्त सृष्टि से परे एक अव्यक्त सृष्टि है। जब सब कुछ विनष्ट हो जाता है तो भी उसकी सत्ता का विनाश नहीं होता।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण “सनातन अव्यक्त” की चर्चा करते हैं — वह सर्वोच्च दिव्य सत्ता जो न केवल दृश्य (व्यक्त) और अदृश्य (अव्यक्त प्रकृति) से परे है, बल्कि काल, सृष्टि और विनाश के पार स्थित है।
जब सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का विनाश होता है — सभी जीव, देवता, लोक, और तत्व नष्ट हो जाते हैं, तब भी यह “परम अव्यक्त” — यानी परब्रह्म — अविनाशी रहता है।
श्रीकृष्ण यहाँ “द्वि-अव्यक्त” का रहस्य प्रकट कर रहे हैं —
- एक “अव्यक्त” वह है जिससे सृष्टि उत्पन्न होती है (प्रकृति)।
- दूसरा “अव्यक्त” वह है जो इस सृष्टि से परे, सनातन, स्थिर और अपरिवर्तनीय है (ब्रह्म)।
अर्थात्, जब समस्त ब्रह्माण्ड प्रलय में लीन हो जाता है, तब भी यह सनातन सत्य, परम सत्ता, अडोल और अविनाशी रहती है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक अद्वैत वेदांत का आधार है — जहाँ “व्यक्त” (दृश्य जगत) और “अव्यक्त” (प्रकृति या माया) दोनों ही परिवर्तनशील हैं।
किन्तु “परस्तस्मात् भाव:” — वह परम सत्ता, ब्रह्म — नित्य और अविनाशी है।
यह परमात्मा सृष्टि और प्रलय से परे है —
वह neither उत्पन्न होता है, nor नष्ट होता है।
यह परम चेतना सब भूतों में व्याप्त होते हुए भी उनसे अलग है।
भगवान यहाँ अर्जुन को यह समझाना चाहते हैं कि मृत्यु और जन्म केवल प्रकृति के स्तर पर होते हैं;
परन्तु जो आत्मा इस “परम अव्यक्त” को जान लेती है, वह सदा अमर रहती है।
प्रतीकात्मक अर्थ
| श्लोकांश | प्रतीकात्मक अर्थ |
|---|---|
| परस्तस्मात् तु भाव: | दृश्य और सूक्ष्म जगत से परे सर्वोच्च चेतना |
| अव्यक्तात् सनातन: | माया या प्रकृति से परे शाश्वत सत्य |
| सर्वेषु भूतेषु | समस्त जीव-जगत |
| नश्यत्सु न विनश्यति | जो नष्ट होते हुए भी नष्ट नहीं होता — आत्मा या ब्रह्म |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- यह संसार नश्वर है — यहाँ सब कुछ परिवर्तनशील है, किन्तु ईश्वर या आत्मा सनातन है।
- जो साधक अपने ध्यान और भक्ति को उस “परम अव्यक्त” पर केंद्रित करता है, वह जन्म-मृत्यु से परे जाता है।
- यह श्लोक हमें सिखाता है कि भौतिक अस्तित्व का अंत ही सब कुछ नहीं है — एक ऐसी सत्ता है जो सभी सीमाओं से परे है।
- जीवन में स्थिरता, श्रद्धा और ईश्वर-स्मरण से ही उस सनातन सत्ता की अनुभूति संभव है।
- आत्मा का स्वरूप कभी नष्ट नहीं होता — वह परमेश्वर का अंश होकर उसी में विलीन होता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं अपने जीवन में उस “सनातन अव्यक्त” की खोज कर रहा हूँ या केवल नश्वर जगत में लिप्त हूँ?
- क्या मैं अपने भीतर की आत्मा को पहचानता हूँ जो कभी नष्ट नहीं होती?
- जब सब कुछ समाप्त हो जाता है, तब मेरे जीवन का आधार क्या है?
- क्या मेरा ध्यान स्थूल शरीर पर है या उस परम चेतना पर जो सबमें व्याप्त है?
- क्या मैं उस शाश्वत सत्ता से अपना संबंध अनुभव कर पा रहा हूँ?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में यह सत्य उद्घाटित करते हैं कि —
भौतिक जगत का विनाश निश्चित है, परन्तु आत्मा और परमात्मा शाश्वत हैं।
यह “परस्तस्मात् अव्यक्त” — वही परम ब्रह्म है जो सभी उत्पत्तियों और विनाशों से परे है।
जो साधक इस सत्य को जान लेता है, वह नश्वरता से मुक्त होकर अमरता का अनुभव करता है।
इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी चेतना को नश्वर संसार में नहीं, बल्कि उस “सनातन अव्यक्त” में स्थिर करे —
क्योंकि वही शाश्वत है, वही शरण है, और वही मोक्ष का सच्चा मार्ग है।
