मूल श्लोक – 23 से 26
(23)
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिन: ।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥
(24)
अग्निर्ज्योतिरह: शुक्ल: षण्मासा उत्तरायणम् ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जना: ॥
(25)
धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण: षण्मासा दक्षिणायनम् ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ॥
(26)
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगत: शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुन: ॥
शब्दार्थ
| संस्कृत शब्द | हिन्दी अर्थ |
|---|---|
| यत्र काले | जिस समय, जिस मार्ग से |
| त्व् | निश्चय ही |
| अनावृत्तिम् | पुनर्जन्म से मुक्ति |
| आवृत्तिम् | पुनर्जन्म को प्राप्त होना |
| चैव | तथा भी |
| योगिन: | योगीजन |
| प्रयाता: | प्रस्थान करते हुए, शरीर त्यागते हुए |
| यान्ति | जाते हैं, प्राप्त होते हैं |
| तं कालम् | वह काल, वह मार्ग |
| वक्ष्यामि | मैं बताता हूँ |
| भरतर्षभ | हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! |
| अग्नि: | अग्नि, तेजस्विता |
| ज्योतिः | प्रकाश, उजाला |
| अह: | दिन |
| शुक्ल: | शुक्ल पक्ष |
| षण्मासाः उत्तरायणम् | सूर्य का उत्तरायण के छह महीने |
| तत्र | उस मार्ग में |
| ब्रह्मविद: जना: | ब्रह्म को जानने वाले |
| गच्छन्ति | पहुँचते हैं |
| धूम: | धुआँ |
| रात्रि: | रात्रि |
| कृष्ण: | कृष्ण पक्ष |
| षण्मासाः दक्षिणायनम् | सूर्य का दक्षिणायण के छह महीने |
| चान्द्रमसम् | चंद्रलोक सम्बन्धी |
| ज्योतिः | प्रकाश, उज्ज्वलता |
| योगी | साधक |
| प्राप्य | प्राप्त करके |
| निवर्तते | लौट आता है (पुनर्जन्म में) |
| शुक्लकृष्णे | शुक्ल और कृष्ण — दो मार्ग |
| गती | गतियाँ, मार्ग |
| जगतः | संसार के |
| शाश्वते | सनातन, चिरस्थायी |
| मते | मतानुसार |
| एकया | एक मार्ग से |
| याति अनावृत्तिम् | मुक्ति प्राप्त होती है |
| अन्यया | दूसरे मार्ग से |
| आवर्तते पुन: | पुनः जन्म होता है |
हे भरत श्रेष्ठ! अब मैं तुम्हें इस संसार से प्रयाण के विभिन्न मार्गों के संबंध में बताऊँगा। इनमें से एक मार्ग मुक्ति की ओर ले जाने वाला है और दूसरा पुनर्जन्म की ओर ले जाता है। वे जो परब्रह्म को जानते हैं और जो उन छः मासों में जब सूर्य उत्तर दिशा में रहता है, चन्द्रमा के शुक्ल पक्ष की रात्रि और दिन के शुभ लक्षण में देह का त्याग करते हैं, वे परम गति को प्राप्त करते हैं। वैदिक कर्मकाण्डों का पालन करने वाले जो साधक, कृष्णपक्ष की रात्रि में, अथवा सूर्य के दक्षिणायन रहते, छ: माह के भीतर मृत्यु को प्राप्त होते हैं, वे स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं। स्वर्ग के सुख भोगने के पश्चात् वे पुनः धरती पर लौटकर आते हैं। प्रकाश और अंधकार के ये दोनों पक्ष संसार में सदा विद्यमान रहते हैं। प्रकाश का मार्ग मुक्ति की ओर तथा अंधकार का मार्ग पुनर्जन्म की ओर ले जाता है।

विस्तृत भावार्थ
इन चारों श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण आवृत्ति (पुनर्जन्म) और अनावृत्ति (मुक्ति) — इन दो मार्गों का रहस्य समझाते हैं।
यहाँ “काल” का अर्थ केवल समय (दिन या रात्रि) नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक मार्ग और आंतरिक अवस्था से है।
१. अनावृत्ति मार्ग (प्रकाश का पथ / देवयान):
- अग्नि, ज्योति, अहः, शुक्ल, उत्तरायण — ये सब प्रतीक हैं प्रकाश, ज्ञान, शुद्धता, और आध्यात्मिक उन्नति के।
- जो साधक सतत ईश्वर-स्मरण में, ज्ञान और भक्ति में स्थित होकर देह त्याग करता है,
वह ब्रह्मलोक या परम धाम को प्राप्त करता है — जहाँ से फिर लौटना नहीं होता। - यह मुक्ति का मार्ग है।
२. आवृत्ति मार्ग (धूम का पथ / पितृयान):
- धूम, रात्रि, कृष्ण, दक्षिणायण — ये सब प्रतीक हैं अज्ञान, तमस, और भोग की प्रवृत्ति के।
- जो योगी अभी पूर्ण आत्मसाक्षात्कार तक नहीं पहुँचा,
वह पुण्यलोक (जैसे चंद्रलोक) को प्राप्त करता है, किंतु वहाँ से पुनः लौटना पड़ता है। - यह पुनर्जन्म का मार्ग है।
भगवान यह नहीं कह रहे कि केवल समय देखकर मृत्यु होने से मुक्ति या बंधन मिलेगा,
बल्कि यह सब आंतरिक चेतना की स्थिति का संकेत है।
अर्थात, जब मन प्रकाशमय, शांत, और भगवान में स्थिर हो, तो मृत्यु मुक्ति का मार्ग बनती है;
और जब मन अंधकार, आसक्ति और मोह में हो, तो मृत्यु पुनर्जन्म का द्वार बनती है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
दार्शनिक रूप से यह भाग उपनिषदों में वर्णित देवयान और पितृयान मार्गों का विस्तार है।
ये दोनों मार्ग प्रतीक हैं —
- देवयान (शुक्ल मार्ग): ज्ञान, भक्ति, तप और सत्त्वगुण से युक्त मार्ग — जो मोक्ष की ओर ले जाता है।
- पितृयान (कृष्ण मार्ग): कर्म, भोग, और आसक्ति से युक्त मार्ग — जो पुनर्जन्म की ओर ले जाता है।
यहाँ “अग्नि और ज्योति” आत्मिक प्रकाश के प्रतीक हैं,
और “धूम और रात्रि” अज्ञान तथा भौतिक मोह के प्रतीक।
श्रीकृष्ण यह सिखा रहे हैं कि जो साधक अपने भीतर प्रकाश की अवस्था को स्थिर कर लेता है,
वह शरीर त्यागते हुए भी मुक्ति की दिशा में बढ़ता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
| श्लोकांश / शब्द | प्रतीकात्मक अर्थ |
|---|---|
| अग्नि, ज्योति, शुक्ल, उत्तरायण | ज्ञान, सत्त्व, ईश्वरस्मरण, दिव्यता |
| धूम, रात्रि, कृष्ण, दक्षिणायण | अज्ञान, तमस, आसक्ति, भोगप्रवृत्ति |
| अनावृत्ति मार्ग | मुक्ति, परमगति |
| आवृत्ति मार्ग | पुनर्जन्म, कर्मफल की पुनरावृत्ति |
| योगी | वह साधक जो साधना के माध्यम से चित्त को स्थिर करता है |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- मृत्यु का मार्ग व्यक्ति की आंतरिक चेतना की दिशा पर निर्भर करता है।
- ईश्वर का स्मरण, भक्ति, सत्य, और ज्ञान का अभ्यास ही मुक्ति का मार्ग है।
- सांसारिक भोग, अज्ञान और मोह में लिप्त रहने से जीव पुनर्जन्म के चक्र में बंधा रहता है।
- मन का शुद्ध और जाग्रत होना ही “उत्तरायण” की अवस्था है —
और मन का अंधकारमय होना “दक्षिणायण” की। - सच्चा साधक मृत्यु से भयभीत नहीं होता — वह उसे अपने ईश्वर-प्रवेश का द्वार समझता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मेरा जीवन “अग्नि और ज्योति” के मार्ग पर है — ज्ञान, सत्य और भक्ति में?
- क्या मैं मृत्यु को केवल अंत मानता हूँ या उसे आत्मा की यात्रा का एक चरण समझता हूँ?
- क्या मेरा मन अभी भी अंधकार और मोह में बंधा हुआ है?
- क्या मैं प्रतिदिन अपने भीतर उस दिव्य प्रकाश को जाग्रत करने का प्रयास कर रहा हूँ?
- यदि आज मृत्यु आए, तो क्या मेरा मन ईश्वर की ओर अग्रसर होगा या संसार की ओर लौटेगा?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण इन श्लोकों के माध्यम से बताते हैं कि जीवन और मृत्यु दोनों ही आत्मा की यात्रा के पड़ाव हैं।
मृत्यु का मार्ग हमारे वर्तमान चित्त की अवस्था से तय होता है।
यदि हमारा मन ज्ञान, प्रेम और ईश्वर में स्थिर है —
तो वही हमें “शुक्ल मार्ग” से मुक्ति की ओर ले जाएगा।
परंतु यदि मन अज्ञान, मोह, और आसक्ति में डूबा है —
तो वही हमें “कृष्ण मार्ग” से पुनर्जन्म की ओर लौटाएगा।
इसलिए, सच्चा योग और साधना यही है कि जीवित रहते हुए ही अपने भीतर के उत्तरायण को जाग्रत करें —
यानी भक्ति, ज्ञान, और ईश्वर के प्रकाश में चित्त को स्थिर करें।
“एकया यात्यनावृत्तिमन्यया आवर्तते पुनः।”
— एक मार्ग से मुक्ति, और दूसरे से पुनर्जन्म — यह ही संसार का सनातन सत्य है।
