मूल श्लोक – 28
वेदेषु यज्ञेषु तप:सु चैव
दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा
योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्॥
शब्दार्थ
| संस्कृत शब्द | हिन्दी अर्थ |
|---|---|
| वेदेषु | वेदों में |
| यज्ञेषु | यज्ञों में, धार्मिक कर्मों में |
| तप:सु | तपस्याओं में |
| चैव | और भी |
| दानेषु | दान में |
| यत् | जो भी |
| पुण्य-फलम् | पुण्य का फल, शुभ फल |
| प्रदिष्टम् | निर्दिष्ट, बताया गया है |
| अत्येति | उससे आगे बढ़ जाता है, अतिक्रमण करता है |
| तत् सर्वम् | वह सब |
| इदम् | यह (सभी कर्मफल) |
| विदित्वा | जानकर, समझकर |
| योगी | योग में स्थित साधक |
| परम् स्थानम् | परम स्थान, परम धाम, ईश्वर का धाम |
| उपैति | प्राप्त करता है |
| च | और |
| आद्यम् | आदि, सर्वोच्च, मूल |
जो योगी इस रहस्य को जान लेते हैं वे वेदाध्ययन, तपस्या, यज्ञों के अनुष्ठान और दान से प्राप्त होने वाले फलों से परे और अधिक लाभ प्राप्त करते हैं। ऐसे योगियों को भगवान का परमधाम प्राप्त होता है।

विस्तृत भावार्थ
यह श्लोक अध्याय 8 का अंतिम श्लोक है — और भगवान श्रीकृष्ण यहाँ सम्पूर्ण अध्याय का सार प्रस्तुत करते हैं।
उन्होंने इस अध्याय में समझाया कि मृत्यु के समय ईश्वर-स्मरण कैसे आत्मा को मुक्ति देता है,
कैसे साधक अपने चित्त को नियंत्रित करके परम धाम तक पहुँच सकता है,
और किन दो मार्गों से आत्मा पुनर्जन्म या मोक्ष को प्राप्त करती है।
अब श्रीकृष्ण इस अंतिम श्लोक में कहते हैं कि —
जो योगी इस ज्ञान को प्राप्त कर लेता है, वह उन सभी कर्मों, यज्ञों, तपों और दानों के फल से भी ऊपर उठ जाता है।
वेदों में वर्णित कर्मकांड, यज्ञ, तपस्या और दान सब मनुष्य को स्वर्ग या पुण्य-लोक की प्राप्ति तक ले जाते हैं,
परंतु वे स्थायी मुक्ति नहीं देते।
परंतु जब साधक योग में स्थित होकर आत्मा और परमात्मा के संबंध को समझता है,
तो वह “कर्मफल” के बंधन से परे, परम धाम — परं स्थानम् — को प्राप्त करता है,
जहाँ से आत्मा कभी लौटती नहीं।
यह परम स्थान वही है जिसे भगवान ने पहले कहा था —
“न तद्भासयते सूर्यः न शशाङ्को न पावकः” (15.6) —
वह ईश्वर का धाम है, जहाँ न सूर्य की आवश्यकता है, न चंद्रमा की, न अग्नि की —
क्योंकि वहाँ स्वयं परम प्रकाश है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक कर्ममार्ग और योगमार्ग के बीच का गूढ़ अंतर स्पष्ट करता है।
कर्मकांड (यज्ञ, दान, तप आदि) मनुष्य को पुण्य देता है — परंतु वह अस्थायी है।
वह पुनर्जन्म के चक्र में ही रखता है, क्योंकि स्वर्ग का भी अंत होता है।
लेकिन योगी — जो ईश्वर के ज्ञान में स्थित है —
वह कर्मों के बंधन से मुक्त होकर ब्रह्म की प्राप्ति करता है।
“विदित्वा” का तात्पर्य केवल जानना नहीं, बल्कि अनुभूत ज्ञान है।
जो योगी इस सत्य को “जीवन में जीता है” — वही इन सभी कर्मों से ऊपर उठता है।
वह समझ लेता है कि यज्ञ, दान और तपस्या केवल साधन हैं,
परंतु अंतिम लक्ष्य — “परमात्मा की प्राप्ति” — केवल योगयुक्त चित्त से ही संभव है।
प्रतीकात्मक अर्थ
| श्लोकांश | प्रतीकात्मक अर्थ |
|---|---|
| वेदेषु यज्ञेषु तप:सु चैव | सभी धार्मिक कर्म, अनुशासन और साधनाएँ |
| दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् | सभी पुण्य कार्यों का अस्थायी फल |
| अत्येति तत्सर्वम् | योगी इन सबसे ऊपर उठता है |
| योगी परं स्थानम् उपैति | योगी परम धाम को प्राप्त करता है — जहाँ से कोई लौटता नहीं |
इसका अर्थ यह है कि ईश्वर की प्राप्ति बाह्य कर्मों से नहीं,
बल्कि अंतःशुद्धि, भक्ति और स्थायी योग से होती है।
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
कर्मकांड से अधिक महत्त्व कर्म का भाव रखता है।
यदि कर्म ईश्वरभाव से रहित है, तो वह केवल अस्थायी पुण्य देता है।
- सच्चा योगी कर्मफल की अपेक्षा नहीं करता।
वह केवल ईश्वर को प्राप्त करने के लिए कर्म करता है — यह निस्वार्थता ही मुक्ति का मार्ग है। - भक्ति, ज्ञान और योग — कर्मकांड से श्रेष्ठ हैं।
क्योंकि ये आत्मा को स्थायी शांति और ब्रह्मानुभूति देते हैं। - दान, यज्ञ और तपस्या तब तक अधूरे हैं जब तक उनमें ईश्वरभाव नहीं।
जब इन्हें योग से जोड़ा जाता है, तब ही वे मुक्ति के साधन बनते हैं। - परम स्थान — यह केवल मृत्यु के बाद का धाम नहीं,
बल्कि वह चेतना है जहाँ जीव स्वयं को ईश्वर से अभिन्न अनुभव करता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं अपने कर्म केवल पुण्यफल के लिए करता हूँ या ईश्वर की प्रसन्नता के लिए?
- क्या मेरा ध्यान कर्मकांड पर अधिक है या परमात्मा की अनुभूति पर?
- क्या मैं तप, दान, और यज्ञ को आत्मशुद्धि का साधन मानता हूँ या प्रतिष्ठा का माध्यम?
- क्या मेरा योग ज्ञान स्थायी और अनुभवजन्य है?
- क्या मैं “परम स्थान” की प्राप्ति के लिए तत्पर हूँ, या अभी भी सांसारिक फलों में उलझा हूँ?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण इस अंतिम श्लोक में अध्याय 8 का सार देते हुए यह सिखाते हैं कि —
योग ही वह महान साधन है जो मनुष्य को सभी पुण्य-कर्मों से भी ऊपर उठाता है।
यज्ञ, दान, तपस्या और वेदों का अध्ययन — ये सब श्रेष्ठ हैं,
परंतु इन सबका फल सीमित है।
योगी इन सबका सार जानकर उन्हें पार कर जाता है,
क्योंकि उसका लक्ष्य केवल परम सत्य — ब्रह्म होता है।
“योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्” —
अर्थात्, ऐसा योगी उस सर्वोच्च, शाश्वत, और आदि धाम को प्राप्त करता है
जहाँ से आत्मा कभी लौटती नहीं।
सारांश:
जो व्यक्ति योग, भक्ति और ईश्वर-स्मरण में स्थिर है —
वह वेदों, यज्ञों, दानों और तपों से प्राप्त सभी पुण्यों को पार कर
सर्वोच्च ईश्वरधाम को प्राप्त करता है।
यह अध्याय इसी शाश्वत सत्य की घोषणा करता है —
कि मुक्ति कर्मों से नहीं, योगयुक्त चित्त से होती है।
