मूल श्लोक – 5
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | हिन्दी अर्थ |
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अन्तकाले | मृत्यु के समय, अंतिम क्षण में |
च | और |
माम् एव | केवल मुझे (भगवान श्रीकृष्ण को) |
स्मरन् | स्मरण करता हुआ, याद करता हुआ |
मुक्त्वा | त्याग कर, छोड़ कर |
कलेवरम् | शरीर |
यः | जो |
प्रयाति | प्रस्थान करता है, जाता है |
सः | वह |
मद्भावम् | मेरे स्वरूप को, मेरे भाव को |
याति | प्राप्त होता है |
न अस्ति | नहीं है |
अत्र | इसमें |
संशयः | कोई संदेह |
वे जो शरीर त्यागते समय मेरा स्मरण करते हैं, वे मेरे पास आएँगे। इस संबंध में निश्चित रूप से कोई संदेह नहीं है।

विस्तृत भावार्थ
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में भक्ति, स्मृति और मोक्ष के गूढ़ संबंध को उजागर करते हैं। वे कहते हैं कि मृत्यु का क्षण साधारण नहीं होता — यह वह क्षण है जब आत्मा शरीर से मुक्त होती है, और उसकी अंतिम चित्तवृत्ति यह निर्धारित करती है कि वह आगे किस दिशा में जाएगी।
यदि उस समय मन, बुद्धि और स्मृति केवल भगवान के स्मरण में लीन हो, तो वह आत्मा ईश्वर के समान स्वरूप को प्राप्त करती है — मद्भावम् याति।
यहाँ “मामेव स्मरन्” बहुत महत्वपूर्ण है — केवल स्मरण नहीं, “केवल मुझे” स्मरण।
भगवान के नाम, रूप, गुण, लीलाओं का मन में चिंतन ही वह स्मृति है जो मोक्ष का द्वार खोलती है।
यह भी कहा गया — “नास्त्यत्र संशयः” — इसमें कोई संशय नहीं। यह सत्य है, सुनिश्चित है, शाश्वत नियम है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक भक्ति-योग, स्मरण-योग और अंतःकाल की स्थिति को एक सूत्र में बाँधता है।
- मृत्यु का क्षण अंतिम परीक्षा है — उस समय की स्मृति यह दर्शाती है कि जीवन भर हम किसमें रमे रहे।
- मनुष्य जैसा अंत समय में स्मरण करता है, वैसा ही भाव उसे प्राप्त होता है (यह बात अगले श्लोकों में भी आती है)।
- मद्भावम् का अर्थ केवल वैकुण्ठ जाना नहीं, बल्कि ईश्वर के स्वरूप को प्राप्त करना, अभेद भाव में स्थित होना भी है।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द / वाक्यांश | प्रतीकात्मक अर्थ |
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अन्तकाले | जीवन का अंतिम क्षण, मृत्यु का द्वार |
मामेव स्मरन् | ईश्वर में स्थित चित्त, पूर्ण समर्पण |
मुक्त्वा कलेवरम् | देहत्याग, आत्मा की स्वतंत्रता का क्षण |
मद्भावम् याति | ईश्वरस्वरूप की प्राप्ति, भगवद्सायुज्य |
नास्त्यत्र संशयः | यह नियम अपरिवर्तनीय है — बिना शंका स्वीकार्य |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- जीवनभर जिन विचारों और भावों में मन लगा रहता है, वही मृत्यु के समय स्मृति में आते हैं।
- मृत्यु के समय भगवान का स्मरण तभी संभव है जब साधक जीवनभर उसका अभ्यास करता है।
- ईश्वर की अनन्य भक्ति, सतत स्मरण और अंतःकालीन चेतना — यही मोक्ष का मार्ग है।
- भगवान का स्मरण मृत्यु को भी मोक्षद्वार में बदल सकता है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं नियमित रूप से भगवान का स्मरण करता हूँ?
- यदि आज मेरा अन्तकाल हो, तो क्या मेरा चित्त भगवान में स्थित है?
- क्या मेरे जीवन की प्राथमिकता भगवान है, या सांसारिक वस्तुएँ?
- क्या मेरा अभ्यास ऐसा है कि अन्तकाल में स्मरण सहज हो जाए?
- क्या मैं भगवान को केवल संकट में याद करता हूँ, या प्रतिदिन, हर क्षण?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में मृत्यु के क्षण में ईश्वरस्मरण की महिमा को उजागर करते हैं। यह केवल शाब्दिक उपदेश नहीं, बल्कि आत्ममुक्ति का नियमबद्ध सूत्र है।
जो भक्त अंतिम समय में भी ईश्वर में लीन होता है, वह ईश्वर के स्वरूप को प्राप्त करता है — और यह निश्चित है।
मरण वह द्वार है जो भय का कारण नहीं, यदि जीवन ईश्वर की स्मृति में बीता हो।
मृत्यु का भय केवल उन्हीं को है जिन्होंने जीवन में सत्य को विस्मृत किया है।
इसलिए — ‘स्मर मरणकालं हरिं हरेः’ — अंतिम स्मृति ईश्वर की हो, यही सच्चा जीवन है।