मूल श्लोक – 6
यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥
शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | हिन्दी अर्थ |
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यं यं | जो-जो (जिस-जिस को) |
वापि | भी |
स्मरन् | स्मरण करता है, याद करता है |
भावम् | भाव, भावना, विचार, स्थिति |
त्यजति | त्यागता है, छोड़ता है |
अन्ते | अंत में, मृत्यु के समय |
कलेवरम् | शरीर को |
तम् तम् एव | उसी-उसी को ही |
एति | प्राप्त होता है, प्राप्त करता है |
कौन्तेय | हे कुन्तीपुत्र! (अर्जुन के लिए संबोधन) |
सदा | सदैव, हमेशा |
तद्भाव-भावितः | उसी भाव से भावित, उसी विचार में रंगा हुआ |
हे कुन्ती पुत्र! मृत्यु के समय शरीर छोड़ते हुए मनुष्य जिसका स्मरण करता है वह उसी गति को प्राप्त होता है क्योंकि वह सदैव ऐसे चिन्तन में लीन रहता है।

विस्तृत भावार्थ
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में मृत्यु के समय की भावना और स्मरण की शक्ति को अत्यंत स्पष्ट रूप में बताते हैं।
- मनुष्य का अंत समय केवल एक पल नहीं होता, बल्कि यह जीवनभर के संस्कारों, विचारों और साधना का समेकित परिणाम होता है।
- “तद्भावभावितः” — जिसका मन किसी विशेष विचार या भावना से लंबे समय तक ओतप्रोत रहा हो, अंततः वही उसकी अंतिम स्मृति बनती है।
- मृत्यु के क्षण में जो स्मरण में आता है, वही अगले जन्म या गति का निर्धारण करता है।
उदाहरण:
- यदि कोई व्यक्ति जीवन भर भोग, धन, या द्वेष में रमा रहा — तो अंत समय में वही भाव उसे बंधन में डालते हैं।
- और यदि कोई व्यक्ति भगवद्भावना में रमा रहा — तो वही उसे मोक्ष की ओर ले जाता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- यह श्लोक जीवात्मा की गति (rebirth or liberation) को उसके अंतिम चित्तवृत्ति से जोड़ता है।
- यह योग दर्शन, भक्ति योग, और मनःसंयम की महत्ता को पुष्ट करता है —
क्योंकि मृत्यु के समय मन का स्थिर और शुद्ध होना ही मुक्ति का द्वार खोलता है। - यहाँ श्रीकृष्ण यह नहीं कह रहे कि एक बार भगवान को याद करने से ही मुक्ति मिल जाएगी,
बल्कि वे कह रहे हैं कि “सदा तद्भावभावितः” — यानी जीवनभर का अभ्यास ही उस अंतिम क्षण को ईश्वरमय बना सकता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
श्लोकांश | प्रतीकात्मक अर्थ |
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यं यं स्मरन् भावम् | जो भी विचार, भावना, विषय मन में बार-बार आता है |
त्यजति अन्ते कलेवरम् | मृत्यु के क्षण में शरीर का त्याग करते हुए जिस विचार का स्मरण होता है |
तम् तम् एव एति | वही प्राप्त होता है, वही अगले जन्म या गति बनता है |
सदा तद्भावभावितः | जीवनभर जिसकी भावना में मन रंगा हो, वही अंत समय में स्वतः प्रकट होता है |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- मृत्यु कोई आकस्मिक घटना नहीं, बल्कि यह जीवनभर के भावों का परिणाम होती है।
- जो भाव हमारे चित्त में नित्य बसा रहता है, वही हमारे अंतिम स्मरण का स्वरूप बनता है।
- इसलिए जीवन में सद्भावनाओं, भगवान के नाम, सेवा, और सत्यवृत्तियों को नियमित रूप से अपनाना चाहिए।
- अंतिम समय की शुभ स्मृति केवल नियमित साधना, समर्पण और चित्त-शुद्धि से संभव है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- मेरा चित्त आजकल सबसे अधिक किस भाव या विचार में रमा रहता है?
- क्या मैं नित्य ईश्वर का स्मरण करता हूँ या सांसारिक विषयों में ही उलझा हूँ?
- क्या मेरा मन अंत समय में भगवान को याद करने योग्य बना है?
- क्या मेरी साधना इतनी गहरी है कि वह अंतिम क्षण में स्वतः प्रकट हो?
- यदि मृत्यु आज आए, तो मैं किस भाव में रहूंगा?
निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में जीवन और मृत्यु के गहरे रहस्य को सरल शब्दों में प्रकट करते हैं:
“जो जैसा स्मरण करता है, वह वैसा ही फल प्राप्त करता है।”
इसलिए साधक को चाहिए कि वह अपने हर विचार, भावना और कर्म को भगवद्भावना से भर दे — ताकि जब अंतिम समय आए, तो उसके चित्त में केवल प्रभु का नाम, स्वरूप और स्मृति हो।
जीवनभर की सच्ची साधना ही मृत्यु के क्षण को पावन बना सकती है — और वही मोक्ष का द्वार खोलती है।