मूल श्लोक: 42
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥42॥
शब्दार्थ:
- याम् — जिस
- इमाम् — इस (वाणी को)
- पुष्पिताम् — पुष्पों के समान आकर्षक (मन को मोहने वाली)
- वाचम् — वाणी (उपदेश, भाषण)
- प्रवदन्ति — बोलते हैं, प्रचार करते हैं
- अविपश्चितः — अज्ञानी, अल्पज्ञ
- वेदवादरताः — वेदों के शब्दों में ही आसक्त रहने वाले
- पार्थ — हे पार्थ (अर्जुन)
- न अन्यत् अस्ति — और कुछ नहीं है (सिर्फ यही है)
- इति वादिनः — ऐसा कहने वाले
अल्पज्ञ मनुष्य वेदों के आलंकारिक शब्दों में अत्यधिक आसक्त रहते हैं। वे स्वर्गलोक का सुख भोगने हेतु दिखावटी कर्मकाण्ड करने की अनुशंसा करते हैं और वे यह मानते हैं कि वेदों में उच्च सिद्धान्तों का वर्णन नहीं किया गया है।
विस्तृत भावार्थ:
इस श्लोक में श्रीकृष्ण उन लोगों की आलोचना कर रहे हैं जो केवल वेदों के बाह्य कर्मकांड (हवन, यज्ञ, स्वर्ग की प्राप्ति आदि) में ही लिप्त रहते हैं और वेदों के गूढ़ तत्त्वज्ञान को नहीं समझते। ऐसे लोग केवल बाह्य दिखावे और फल की प्राप्ति को ही जीवन का अंतिम लक्ष्य मान लेते हैं।
‘पुष्पितां वाचं’ — वेदों की वाणी सुंदर, आकर्षक और भौतिक फलों की ओर प्रेरित करती प्रतीत होती है। जो लोग विवेकशील नहीं होते (अविपश्चितः), वे इस वाणी को ही परम सत्य मानते हैं और सोचते हैं कि स्वर्ग की प्राप्ति ही सर्वोच्च है।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
1. ‘पुष्पितां वाचं’ – मोहक किन्तु सतही ज्ञान
‘पुष्पित’ शब्द का प्रयोग यहाँ प्रतीकात्मक है। पुष्प दिखने में सुंदर होते हैं, परंतु उनमें स्थायित्व नहीं होता। इसी प्रकार, वेदों में जो कर्मकांड वर्णित हैं, वे मनुष्य को स्वर्ग, ऐश्वर्य, संतान, धन आदि की ओर आकर्षित करते हैं। ये सब क्षणिक और अनित्य हैं।
यहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो लोग केवल इन भोगों को ही जीवन का लक्ष्य मानते हैं, वे वास्तविक आत्मज्ञान से वंचित रह जाते हैं।
2. ‘अविपश्चितः’ – ज्ञानहीन या सतही सोच वाले लोग
‘विपश्चित’ यानी ज्ञानी या विवेकशील। ‘अविपश्चित’ वे लोग हैं जो केवल बाह्य क्रियाओं में विश्वास करते हैं लेकिन उनके पीछे छिपे तात्त्विक सत्य को नहीं समझते। वे वेदों की शिक्षाओं को केवल भौतिक लाभ तक सीमित कर देते हैं।
उदाहरण: यदि कोई व्यक्ति गीता को केवल धार्मिक अनुष्ठान के रूप में देखे, और उसके आत्मिक संदेश को न समझे, तो वह ‘अविपश्चित’ ही कहलाता है।
3. ‘वेदवादरताः’ – वेदों में आसक्त परंतु अर्थ से अनभिज्ञ
श्रीकृष्ण यहाँ यह नहीं कहते कि वेद अश्रद्धेय हैं। वेद तो ज्ञान का भंडार हैं। लेकिन वेदों का उपयोग केवल स्वर्ग और सुख-साधनों की प्राप्ति के लिए करना, उनका गंभीर अर्थ खो देना है।
ऐसे लोग ध्यान, वैराग्य, आत्मा की खोज आदि की ओर नहीं जाते। वे केवल यह सोचते हैं कि – “हवन करो, स्वर्ग मिलेगा। दान दो, पुनर्जन्म अच्छा होगा।” इस विचारधारा से आत्मज्ञान की ओर कदम नहीं बढ़ता।
4. ‘नान्यदस्तीति वादिनः’ – अन्य किसी सत्य को न मानने वाले
ये लोग मानते हैं कि स्वर्ग और भोग ही अंतिम लक्ष्य हैं। वे आत्मा, ब्रह्म, मुक्ति जैसे गूढ़ विषयों को नकारते हैं। यह अज्ञानता का चिह्न है।
ऐसे लोगों के लिए धर्म का अर्थ सिर्फ यज्ञ और दान बनकर रह जाता है, जबकि धर्म का मूल उद्देश्य है – आत्मा की शुद्धि और परमात्मा से मिलन।
दार्शनिक दृष्टिकोण:
इस श्लोक में श्रीकृष्ण कर्मकांड बनाम ज्ञानकांड की चर्चा करते हैं। वे बताते हैं कि केवल कर्म करना और उसके फल की इच्छा रखना, मनुष्य को संसार के चक्र में फँसाए रखता है।
श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि ज्ञान और आत्मविकास के बिना कर्म केवल एक बंधन बन जाता है। जो व्यक्ति इस ‘पुष्पित वाणी’ में उलझा रहता है, वह जीवन के उद्देश्य – मोक्ष – से विमुख हो जाता है।
प्रतीकात्मक अर्थ:
- ‘पुष्पित वाचम्’ = मोहक लेकिन अस्थायी मार्ग
- ‘अविपश्चितः’ = अनजाने साधक जो बाह्य में फँसे रहते हैं
- ‘नान्यदस्तीति वादिनः’ = आत्मा और परमात्मा की सत्ता को न मानने वाले
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा:
- केवल धर्म के बाह्य रूपों में उलझना उचित नहीं; उसकी आंतरिक आत्मा को समझना चाहिए।
- धार्मिक क्रियाओं का उद्देश्य आत्मिक शुद्धि होनी चाहिए, न कि केवल फल की प्राप्ति।
- ज्ञान, विवेक और आत्मचिंतन से ही सही दिशा मिलती है।
- धर्मग्रंथों को आस्था से नहीं, समझ से पढ़ना चाहिए।
आत्मचिंतन के प्रश्न:
क्या मैं केवल धार्मिक कर्मों को फल पाने के लिए करता हूँ?
क्या मेरी श्रद्धा विवेक से जुड़ी है या परंपरा मात्र से?
क्या मैं वेदों या ग्रंथों की गहराई में जाने की कोशिश करता हूँ?
क्या मैं अपने धर्म को दिखावे या भीतरी आत्मोन्नति के लिए अपनाता हूँ?
निष्कर्ष:
श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से अर्जुन और हम सभी को सावधान करते हैं कि केवल धर्म के बाह्य आचरणों में लिप्त रहना पर्याप्त नहीं है। यदि हम वेदों की ‘पुष्पित वाणी’ में उलझे रह गए और आत्मज्ञान को नहीं पहचाना, तो हम केवल संसार की इच्छाओं में भटकते रहेंगे।
सच्चा साधक वही है जो वेदों के भीतर छिपे आत्मज्ञान को समझे और जीवन को धर्म, विवेक और मुक्ति की ओर ले जाए।
