Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 4, Sloke 7

मूल श्लोक: 7

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥7॥

शब्दार्थ

  • यदा यदा — जब-जब, हर बार जब भी
  • हि — निश्चय ही, वास्तव में
  • धर्मस्य — धर्म का, न्याय, सदाचार, सत्य का
  • ग्लानिः — ह्रास, क्षय, पतन, दुर्बलता
  • भवति — होता है, उत्पन्न होता है
  • भारत — हे भारत (अर्जुन का संबोधन)
  • अभ्युत्थानम् — उदय, वृद्धि, प्रबल होना
  • अधर्मस्य — अधर्म का, अन्याय, पाप, अधार्मिकता का
  • तत् — उस समय
  • आत्मानम् — स्वयं को, अपना स्वरूप
  • सृजामि — मैं उत्पन्न करता हूँ, प्रकट करता हूँ
  • अहम् — मैं (भगवान श्रीकृष्ण)

जब जब धरती पर धर्म की ध्वनि और अधर्म में वृद्धि होती है तब उस समय मैं पृथ्वी पर अवतार लेता हूँ।

विस्तृत भावार्थ

भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से यह संदेश दे रहे हैं कि वे संसार के संचालन और संतुलन के लिए स्वयं अवतार लेते हैं। जब भी सामाजिक और आध्यात्मिक व्यवस्था में गिरावट आती है, जब धर्म (न्याय, सदाचार, और नैतिकता) कमजोर पड़ता है, और अधर्म (अन्याय, पाप, और अनैतिकता) बढ़ जाता है, तब वे स्वयमेव अपनी दिव्य शक्ति से मानव रूप धारण कर, संसार में प्रकट होते हैं।

यह अवतार का सिद्धांत है, जिसमें भगवान स्वयं को समय-समय पर धरती पर प्रकट कर, अधर्म का नाश और धर्म की पुनः स्थापना करते हैं। इस श्लोक में ‘यदा यदा’ का अर्थ है बार-बार या काल-काल पर। इसलिए यह केवल एक बार का कार्य नहीं, बल्कि निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है।

यह एक गहरा दार्शनिक विचार भी प्रस्तुत करता है कि ब्रह्मांड की व्यवस्था और नियम (धर्म) कभी स्थिर नहीं रहते, वे परिवर्तनशील हैं और जब असंतुलन होता है, तब ईश्वर उसकी व्यवस्था करते हैं।

भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण

दार्शनिक दृष्टिकोण

यह श्लोक भारतीय दर्शन का एक महत्वपूर्ण स्तम्भ है। यह अवतारवाद का मूल सूत्र है। अवतार का अर्थ है — ‘अव’ अर्थात नीचे और ‘तार’ अर्थात उतरना, यानी ईश्वर का पृथ्वी पर उतरना।

श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे विश्व के पालनहार हैं और मानव समाज में नैतिकता और धर्म की रक्षा के लिए जब भी आवश्यकता पड़ती है, वे पृथ्वी पर अवतार लेकर आते हैं। यह अवतार सिर्फ भौतिक रूप से प्रकट होना नहीं है, बल्कि एक दिव्य मिशन, एक दैवीय कार्य के लिए होता है।

यह सृष्टि के चक्र और कर्म सिद्धांत से भी जुड़ा है। जब अधर्म बढ़ता है, तब उसके कारण सृष्टि में असंतुलन उत्पन्न होता है। इस असंतुलन को दूर करने के लिए ईश्वर स्वयं हस्तक्षेप करता है।

यह दर्शन न केवल धर्म की महत्ता को स्पष्ट करता है, बल्कि विश्वास दिलाता है कि ब्रह्मांड का नियमन स्वयं सर्वोच्च सत्ता करती है।

प्रतीकात्मक अर्थ

  • धर्मस्य ग्लानि — यह केवल बाहरी सामाजिक नियमों का पतन नहीं, बल्कि मनुष्य के अंदर की नैतिक गिरावट भी हो सकती है। जब मनुष्य अपने कर्तव्य से विमुख हो जाता है, असत्य और अन्याय को अपनाता है, तब धर्म ग्लानि का शिकार होता है।
  • अभ्युत्थानमधर्मस्य — अधर्म केवल बाहरी पाप कर्मों का उदय नहीं, बल्कि ईगो, लालच, घृणा और अहंकार का प्रबल होना है।
  • आत्मानं सृजामि — परमात्मा का आत्मप्रकाश, स्वयं का प्रकट होना जो अधर्म का नाश कर धर्म की पुनः स्थापना करता है।

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • ईश्वर कभी भी धर्म के पतन को सहन नहीं करता। वह अपने भक्तों की रक्षा के लिए सदैव सजग रहता है।
  • मनुष्य को अपने कर्तव्य और धर्म के प्रति जागरूक रहना चाहिए। अधर्म के उदय से पहले ही उसे अपने आचरण का निरीक्षण करना चाहिए।
  • यह श्लोक आश्वासन देता है कि चाहे जितना भी संकट आए, ईश्वर निःसंदेह धर्म की रक्षा करेगा।
  • यह एक प्रेरणा है कि हम अधर्म के विरुद्ध सदैव खड़े रहें और अपने जीवन में धर्म को स्थापित करें।

आध्यात्मिक एवं दार्शनिक गहराई

श्रीकृष्ण का यह वाक्य हमें बताता है कि संसार में अच्छे और बुरे का हमेशा संघर्ष चलता रहेगा। यह द्वैतवाद का दर्शन है। लेकिन यह भी सत्य है कि सर्वोच्च सत्ता समय-समय पर इस द्वैत को संतुलित करने के लिए स्वयं अवतार लेती है। यह अवतार न केवल युद्ध या भौतिक संघर्ष के लिए होता है, बल्कि आध्यात्मिक, सामाजिक, और नैतिक पुनर्स्थापना के लिए होता है।

श्रीकृष्ण का यह वचन मनुष्य को एक गहरी आशा और भरोसा देता है कि जब भी वह खुद को अकेला महसूस करे, या समाज में बुराई प्रबल हो, तब भी ईश्वर जागरूक है और उचित समय पर उसे सहायता के लिए अवतार देगा।

यह संदेश केवल व्यक्तिगत जीवन के लिए ही नहीं, बल्कि सामाजिक और सार्वभौमिक जीवन के लिए भी है।

आत्मचिंतन के प्रश्न

क्या मैं अपने जीवन में धर्म के महत्व को समझता हूँ?
क्या मैं अपने कर्तव्यों और नैतिक जिम्मेदारियों का पालन कर रहा हूँ?
क्या मैं जब भी अधर्म या अन्याय का सामना करता हूँ, तो उसका विरोध करता हूँ?
क्या मुझे विश्वास है कि ईश्वर धर्म की रक्षा करता है?
क्या मैं अपने भीतर के अधर्म (अहंकार, लोभ, क्रोध) को पहचानता हूँ और दूर करने का प्रयास करता हूँ?
क्या मैं अपने समाज में न्याय और धर्म को स्थापित करने के लिए सक्रिय हूँ?

निष्कर्ष

यह श्लोक भगवद्गीता का एक अत्यंत महत्वपूर्ण संदेश है, जो मानवता के लिए आशा और विश्वास का स्रोत है। जब भी संसार में नैतिकता और धर्म पतन की ओर बढ़े, तब ईश्वर स्वयं अवतार लेकर उसका नाश करता है और पुनः संतुलन स्थापित करता है।

यह केवल एक आध्यात्मिक कथन नहीं, बल्कि एक सार्वभौमिक सत्य भी है कि अधर्म कभी भी स्थायी नहीं रहता। ईश्वर की अनंत दया और शक्ति हमेशा धर्म की रक्षा करती है।

यह श्लोक हमें आत्म-जागरूकता और कर्तव्यनिष्ठा के लिए प्रेरित करता है, साथ ही यह स्मरण कराता है कि ईश्वर का साथ सदैव हमारे साथ है।

इस प्रकार, यह श्लोक सम्पूर्ण मानव जीवन के लिए नैतिक, आध्यात्मिक और दार्शनिक गाइड की तरह कार्य करता है।

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