मूल श्लोक – 23
तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥23॥
शब्दार्थ
- तं विद्यात् — उसे जानना चाहिए
- दुःख-संयोग-वियोगम् — दुःख के संयोग (संघात) से वियोग (वियुक्ति, छूटना)
- योग-सञ्ज्ञितम् — जिसे “योग” कहा गया है
- सः — वह (योग)
- निश्चयेन — दृढ़ निश्चय के साथ
- योक्तव्यः — साधना करनी चाहिए, अभ्यास करना चाहिए
- योगः — योग (आत्मसाधना)
- अनिर्विण्ण-चेतसा — हताश न होने वाले चित्त से, दृढ़ मन से
दख के संयोग से वियोग की अवस्था को योग के रूप में जाना जाता है। इस योग का दृढ़तापूर्वक कृतसंकल्प के साथ निराशा से मुक्त होकर पालन करना चाहिए।

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण योग का एक प्रभावशाली और अत्यंत व्यावहारिक परिभाषात्मक स्वरूप प्रस्तुत करते हैं।
दो मुख्य बातें उभरकर आती हैं:
1. योग = दुःख से वियोग की अवस्था
- सामान्यत: “योग” का अर्थ होता है – जोड़ना, परंतु यहाँ एक नया और गहरा अर्थ दिया गया है –
“दुःख से वियोग”। - जब साधक मन, बुद्धि, और आत्मा के अभ्यास द्वारा इस स्थिति तक पहुँचता है जहाँ वह
किसी भी दुःख से प्रभावित नहीं होता, वहाँ वही योग कहलाता है।
2. इस योग की साधना कैसे करें?
- “स निश्चयेन योक्तव्यः” – इसे दृढ़ निश्चय के साथ करना चाहिए।
- साधक को यह मन में ठान लेना चाहिए कि चाहे जितनी बाधाएँ आएँ, वह अभ्यास नहीं छोड़ेगा।
- “अनिर्विण्णचेतसा” – साधना करते समय उदासी, ऊब, निराशा, अवसाद न आने पाए।
- मन चाहे बार-बार भटके, लेकिन साधक को अडिग रहना चाहिए।
दार्शनिक दृष्टिकोण
- यह श्लोक बताता है कि योग कोई केवल मानसिक सुख की प्रक्रिया नहीं, बल्कि दुःख के कारणों से पूर्ण मुक्ति की दिशा है।
- योग का उद्देश्य केवल आनंद नहीं, बल्कि दुःख के बंधन को जड़ से समाप्त करना है।
- जो साधक दृढ़ निश्चय और दृढ़ता के साथ योग का अभ्यास करता है, वह समय के साथ ऐसे मुकाम पर पहुँचता है, जहाँ दुःख अब उसका भाग्य नहीं रह जाता, बल्कि एक बीता हुआ भ्रम बन जाता है।
प्रतीकात्मक अर्थ
शब्द / वाक्यांश | प्रतीकात्मक अर्थ |
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दुःखसंयोग | संसारिक परिस्थितियों, वासनाओं, अहंकार से उत्पन्न क्लेश और पीड़ा |
वियोग | उन बंधनों से अलग हो जाना — मुक्त होना |
योगसञ्ज्ञितम् | यही “योग” है — मोक्ष की ओर ले जाने वाला मार्ग |
निश्चयेन | आत्मबल, दृढ़ निश्चय — जो किसी भी विकर्षण में न डिगे |
अनिर्विण्णचेतसा | ऐसा चित्त जो परिश्रम से नहीं थकता, निराश नहीं होता |
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- योग = दुःखों से स्वतंत्रता।
- केवल आसन, प्राणायाम या ध्यान नहीं, बल्कि मानसिक बंधनों से मुक्ति ही असली योग है।
- हर साधक को यह जानना चाहिए कि दुःख से छूटना संभव है, और योग उसका उपाय है।
- अभ्यास करते समय यदि निराशा आ भी जाए, तो याद रखें — यही वह क्षण है जब अभ्यास की सच्ची परीक्षा होती है।
- निरंतरता और अविचल श्रद्धा ही योग को फलवती बनाती है।
आत्मचिंतन के प्रश्न
- क्या मैं अपने दुःखों को ही भाग्य मान बैठा हूँ, या उनसे मुक्ति के लिए साधना करता हूँ?
- क्या मेरा योग केवल शारीरिक अभ्यास है, या मानसिक और आत्मिक विकास भी है?
- क्या मेरा चित्त दृढ़ और एकाग्र है, या बार-बार साधना से ऊब जाता है?
- क्या मैंने योग को दुःखमुक्ति के साधन के रूप में स्वीकार किया है?
- क्या मैं “निश्चय” और “अनिर्विण्णता” को अपने जीवन में उतार पाया हूँ?
निष्कर्ष
यह श्लोक योग की एक मूल और वास्तविक परिभाषा देता है:
“योग = दुःख के संयोग से वियोग”
और यह बताता है कि—
- सत्य साधना दृढ़ता, स्थिरता और अविचल भाव से की जानी चाहिए।
- योगी वह नहीं जो केवल ध्यान में बैठता है, बल्कि वह जो हर परिस्थिति में अभ्यास से पीछे न हटे।
- जब यह अभ्यास पूरे मन, बुद्धि और आत्मा से किया जाता है, तभी वह जीवन को दुःख से मुक्त, और अंततः मुक्ति की ओर ले जाता है।
इसलिए –
“दुःख से न डरें,
साधना न छोड़ें,
अभ्यास में दृढ़ रहें —
वही सच्चा योग है।”