मूल श्लोक:
दुर्योधन उवाच —
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥3॥
शब्दार्थ:
- पश्य — देखो
- एताम् — इस
- पाण्डुपुत्राणाम् — पांडु के पुत्रों की (पाण्डवों की)
- आचार्य — हे आचार्य! (द्रोणाचार्य को संबोधित)
- महतीं — विशाल
- चमूम् — सेना को
- व्यूढाम् — सुव्यवस्थित, रणनीतिक रूप से सुसज्जित
- द्रुपदपुत्रेण — द्रुपद के पुत्र (धृष्टद्युम्न) द्वारा
- तव शिष्येण — आपके ही शिष्य द्वारा
- धीमता — बुद्धिमान
दुर्योधन ने कहाः पूज्य आचार्य! पाण्डु पुत्रों की विशाल सेना का अवलोकन करें, जिसे आपके द्वारा प्रशिक्षित बुद्धिमान शिष्य द्रुपद के पुत्र ने कुशलतापूर्वक युद्ध करने के लिए सुव्यवस्थित किया है।

विस्तृत भावार्थ:
यह श्लोक महाभारत युद्ध के आरंभिक क्षणों का चित्र प्रस्तुत करता है, जब कौरवों की ओर से दुर्योधन अपने गुरु द्रोणाचार्य के पास जाकर पांडवों की सेना की व्यवस्था पर टिप्पणी करता है। यहाँ से गीता के घटनाक्रमों का बाह्य चित्रण प्रारंभ होता है।
1. ‘पश्यैतां पाण्डुपुत्राणाम…’ — दृष्टिकोण की राजनीति:
दुर्योधन यहाँ द्रोणाचार्य से कहता है — “देखिए आचार्य! पांडवों की यह विशाल सेना।”
यह एक साधारण वाक्य नहीं है, बल्कि इसके पीछे एक रणनीतिक और मनोवैज्ञानिक उद्देश्य छिपा है।
दुर्योधन जानबूझकर गुरु द्रोण की मानसिकता को प्रभावित करने की कोशिश कर रहा है। वह उन्हें याद दिला रहा है कि पांडवों की सेना बहुत बड़ी है — संभवतः यह डर या चिंता उत्पन्न करने का प्रयास है।
2. ‘महतीं चमूम्’ — सैन्य शक्ति का प्रदर्शन:
‘महतीं चमूम्’ — पांडवों की सेना को ‘विशाल’ बताया गया है।
यह केवल बाह्य बल का उल्लेख नहीं, बल्कि यह उस संकल्प और न्याय का भी संकेत है जिसके लिए पांडव लड़ रहे हैं।
यह सेना केवल संख्याबल में बड़ी नहीं, बल्कि इसके पीछे नैतिक और रणनीतिक बल भी है। इस वाक्य के माध्यम से दुर्योधन अप्रत्यक्ष रूप से पांडवों की ताकत को स्वीकार कर रहा है।
3. ‘व्यूढां द्रुपदपुत्रेण’ — युद्धनीति का संकेत:
यह सेना यूँ ही खड़ी नहीं है, बल्कि इसे व्यूढाम् — सुव्यवस्थित — किया गया है।
और यह व्यवस्था की है द्रुपदपुत्र — यानी धृष्टद्युम्न ने।
धृष्टद्युम्न वही हैं जो द्रोणाचार्य के वध के लिए उत्पन्न हुए थे। यही तथ्य दुर्योधन अपने शब्दों से उभारता है — वह व्यंग्यात्मक तरीके से कहता है कि “देखिए, आपकी ही शिक्षा में पले व्यक्ति ने पांडवों की सेना को इतने चतुराई से सजा दिया है।”
4. ‘तव शिष्येण धीमता’ — व्यंग्य और कटाक्ष:
दुर्योधन यहाँ गहरे कटाक्ष का प्रयोग करता है।
वह द्रोणाचार्य को याद दिलाता है कि धृष्टद्युम्न “आपका शिष्य है” — जिसे आपने ही युद्धविद्या सिखाई।
और अब वही आपके विरुद्ध युद्ध की व्यवस्था कर रहा है।
यह वाक्य केवल सूचना नहीं है, बल्कि एक भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक चाल है — जिससे द्रोण को आहत कर, उसके भीतर पांडवों के प्रति रोष और कौरवों के प्रति प्रतिबद्धता जगाई जा सके।
‘धीमता’ शब्द यहाँ दुर्योधन की कूटनीति को दर्शाता है — वह धृष्टद्युम्न की बुद्धिमत्ता की सराहना के बहाने, गुरु की आत्मा को झकझोरना चाहता है।
दर्शनशास्त्रीय दृष्टिकोण:
यह श्लोक केवल सेनाओं की स्थिति नहीं दर्शाता, बल्कि राजनीति, कूटनीति, और मानवीय स्वभाव की गहराइयों को उजागर करता है।
- दुर्योधन का असुरक्षा भाव:
एक राजा होने के बावजूद, वह पांडवों की शक्ति देखकर चिंतित है। उसकी भाषा में भय है, जो वह सम्मान और व्यंग्य के पीछे छिपा रहा है। - गुरु-शिष्य संबंधों की विडंबना:
जिस गुरु ने युद्ध विद्या सिखाई, वही शिष्य आज उसे परास्त करने के लिए युद्धभूमि में खड़ा है। यह बताता है कि ज्ञान का उपयोग यदि उद्देश्यहीन हो, तो वह स्वयं अपने मूल को काट सकता है। - नीति और नैतिकता की जटिलता:
द्रोण ने किसी पूर्वाग्रह के बिना सबको शिक्षा दी — चाहे वह पांडव हों या कौरव, या फिर धृष्टद्युम्न। यह श्लोक हमें उस नैतिकता के दोहरेपन की ओर ले जाता है जहाँ व्यक्ति के कर्म स्वयं उसके ही विरुद्ध खड़े हो सकते हैं।
आध्यात्मिक अर्थ:
- धृष्टद्युम्न (विवेक) बनाम गुरु (संस्कार):
धृष्टद्युम्न का द्रोण के विरुद्ध खड़ा होना एक संकेत है — कभी-कभी पुराने संस्कार (गुरु) के विरुद्ध नया विवेक (शिष्य) खड़ा होता है, जब समय और धर्म की मांग होती है। - दुर्योधन का दृष्टिकोण — बाह्य भय का प्रतीक:
दुर्योधन संसार की दृष्टि से युद्ध देख रहा है — वह सिर्फ सेना, संख्या, और संगठन देखता है। वह धर्म, नीति, या आत्मबल को नहीं देखता।
निष्कर्ष:
श्लोक 3, गीता में बाह्य घटनाओं का आरंभिक वर्णन है — लेकिन उसके पीछे गहरी मानसिक और नैतिक परतें छुपी हैं।
दुर्योधन का यह कथन केवल सूचना नहीं, बल्कि रणनीति, व्यंग्य, और चिंता का मिश्रण है। यह दर्शाता है कि युद्ध केवल तलवारों का नहीं होता — वह शब्दों, भावनाओं, और मनोवैज्ञानिक प्रभावों का भी होता है।
आपसे प्रश्न:
जब आपके सामने वह खड़ा हो जो कभी आपने स्वयं गढ़ा था —
तो आप क्या करते हैं?
क्या आप अहंकार से भर जाते हैं, या अपने कर्म और उसके परिणाम की जिम्मेदारी लेते हैं?