मूल श्लोक: 44
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते॥ 44॥
शब्दार्थ:
- भोग-ऐश्वर्य-प्रसक्तानाम् — भोग और ऐश्वर्य में अत्यधिक आसक्त लोगों का
- तया — (उस वाचाल वेदवाणी) द्वारा
- अपहृत-चेतसाम् — जिनकी चेतना हरण कर ली गई है, जिन्हें मोहित कर लिया गया है
- व्यवसायात्मिका बुद्धिः — एकनिष्ठ, स्थिर और लक्ष्य की ओर केंद्रित बुद्धि
- समाधौ — समाधि में, ध्यान की अवस्था में
- न विधीयते — उत्पन्न नहीं होती, स्थापित नहीं होती
ऐसे मनुष्यों को सांसारिक सुखों में मन की गहन आसक्ति तथा बुद्धि सांसारिक वस्तुओं में मोहित रहती है इसलिए वे भगवतप्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर होने के लिए दृढ़-संकल्प लेने में असमर्थ होते हैं।
विस्तृत भावार्थ:
यह श्लोक पिछले दो श्लोकों की श्रृंखला को पूर्ण करता है। श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि जब मनुष्य भोग (इंद्रियसुख) और ऐश्वर्य (भौतिक वैभव) की ओर अत्यधिक आकर्षित हो जाता है, तो उसकी चेतना में ऐसा मोह छा जाता है कि वह आध्यात्मिक एकाग्रता प्राप्त नहीं कर सकता।
इसका परिणाम यह होता है कि उसकी बुद्धि व्यवसायात्मिका नहीं रह जाती — अर्थात् वह लक्ष्य की ओर अडिग नहीं रहती, वह चंचल हो जाती है और समाधि (आत्म-स्थिति) का अनुभव संभव नहीं होता।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
1. ‘भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम्’ — भोग और वैभव में डूबे हुए लोग
‘प्रसक्ति’ शब्द यहाँ अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह केवल सामान्य आकर्षण नहीं है, बल्कि गहरे स्तर की आसक्ति है। ऐसे लोग धर्म का पालन भी केवल इसीलिए करते हैं ताकि उन्हें भौतिक लाभ, सफलता, सुख-सुविधा, धन-संपत्ति और यश प्राप्त हो।
उनका सारा ध्यान केवल “मुझे क्या मिलेगा?” पर केंद्रित होता है, और वे आत्मा के कल्याण की चिंता नहीं करते।
2. ‘तया अपहृतचेतसाम्’ — जिनकी चेतना हर ली गई है
यहाँ श्रीकृष्ण उस वेदों की वाचालता की ओर इशारा करते हैं, जो केवल स्वर्ग, भोग और फल की बात करती है (पिछले श्लोकों में वर्णित)। इससे मोहित होकर साधारण जन अपनी चेतना को भुला बैठते हैं।
उनका मन निरंतर भटकता है: “और क्या मिल सकता है?”, “कौन-सा यज्ञ और बड़ा फल देगा?” इस प्रकार चेतना बाहरी आकर्षणों में हरण हो जाती है।
3. ‘व्यवसायात्मिका बुद्धिः’ — एकनिष्ठ और दृढ़ बुद्धि
भगवद्गीता में यह शब्द बहुधा दोहराया जाता है। ‘व्यवसायात्मिका बुद्धि’ का अर्थ है — वह बुद्धि जो केवल एक लक्ष्य पर स्थिर हो, जो अनेक विकल्पों में नहीं उलझती, जो निर्णय में दृढ़ होती है।
ऐसी बुद्धि उन्हीं में होती है जिनका चित्त शुद्ध और मोह-रहित होता है। भोग और ऐश्वर्य की लालसा में डूबा व्यक्ति न तो ध्यान कर सकता है, न भक्ति, क्योंकि उसकी बुद्धि हर समय इच्छाओं के पीछे दौड़ रही होती है।
4. ‘समाधौ न विधीयते’ — समाधि में स्थित नहीं होती
‘समाधि’ यहाँ केवल योग की अवस्था नहीं, बल्कि आत्मा की स्थिरता और भगवान के साथ एकता की स्थिति है। जब मनुष्य का चित्त विक्षिप्त होता है — यानी इधर-उधर भटक रहा होता है — तब वह समाधि प्राप्त नहीं कर सकता।
अतः भोग और ऐश्वर्य की अतृप्त इच्छा मनुष्य को चित्त की स्थिरता से वंचित कर देती है, जिससे उसका आध्यात्मिक उत्थान अवरुद्ध हो जाता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण:
यह श्लोक यह स्पष्ट करता है कि चित्त की एकाग्रता और आत्मा की उन्नति के लिए, मन को भोग और आकर्षणों से मुक्त करना अनिवार्य है।
शास्त्रों और धर्मग्रंथों में वर्णित विधियाँ तभी उपयोगी हैं जब वे वासना और मोह से रहित भाव में की जाएँ। अन्यथा वे भी बंधन का कारण बनती हैं।
श्रीकृष्ण यहां कर्मकांड और भोगवाद के विरुद्ध ज्ञानी दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं, जहाँ धर्म मोक्ष और आत्मबोध का साधन बनता है — न कि सांसारिक सफलताओं का रास्ता।
प्रतीकात्मक अर्थ:
- भोग = इंद्रियों की तृप्ति
- ऐश्वर्य = भौतिक वैभव
- प्रसक्ति = गहन आसक्ति
- अपहृत चेतस = मोहग्रस्त, भटकी हुई चेतना
- समाधि = आत्म-स्थिति, ब्रह्म से एकता
- व्यवसायात्मिका बुद्धि = योग्यता और ध्यान में स्थिर बुद्धि
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा:
- धर्म का वास्तविक उद्देश्य आत्मा की उन्नति है, न कि केवल सांसारिक सफलता।
- जो व्यक्ति इच्छाओं में फँसा हुआ है, वह ध्यान नहीं कर सकता।
- एकाग्रता और आत्मज्ञान के लिए आवश्यक है कि मन राग-द्वेष और मोह से मुक्त हो।
- बुद्धि को स्थिर करने के लिए आवश्यक है कि हम इंद्रिय भोग की ओर आकर्षित न हों।
आत्मचिंतन के प्रश्न:
क्या मेरी चेतना भोग और ऐश्वर्य की प्राप्ति में ही उलझी हुई है?
क्या मेरी धार्मिकता केवल इच्छापूर्ति का माध्यम बन चुकी है?
क्या मेरी बुद्धि किसी एक आध्यात्मिक लक्ष्य पर केंद्रित है या हर समय भटकती रहती है?
क्या मैं समाधि या आत्म-शांति की दिशा में बढ़ रहा हूँ, या केवल बाह्य आकर्षणों की ओर?
निष्कर्ष:
यह श्लोक जीवन का गूढ़ सत्य सिखाता है — जब तक मनुष्य भोग और ऐश्वर्य की लालसा में फँसा रहेगा, तब तक उसकी चेतना भ्रमित रहेगी और वह आत्मा की शांति को प्राप्त नहीं कर पाएगा।
ध्यान, समाधि, भक्ति — ये सब उसी के लिए संभव हैं जो मन को वश में कर ले, बुद्धि को स्थिर बनाए और मोह से ऊपर उठे। तभी वह सच्चे अर्थों में योगी और ज्ञानी बन सकता है।