Bhagavad Gita: Hindi, Chapter 3, Sloke 15

मूल श्लोक: 15

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥

शब्दार्थ

  • कर्म — कार्य, कर्तव्य, धर्म अनुसार किया गया व्यवहार
  • ब्रह्मोद्भवम् — ब्रह्म (वेद, शाश्वत ज्ञान) से उत्पन्न
  • विद्धि — जानो, समझो
  • ब्रह्म — वेद या शाश्वत ज्ञान
  • अक्षरसमुद्भवम् — अक्षर (अविनाशी परमात्मा) से उत्पन्न
  • तस्मात् — इसलिए
  • सर्वगतम् — सर्वत्र व्याप्त
  • ब्रह्म — यहाँ अर्थ है वेद, ज्ञान
  • नित्यं — सदा
  • यज्ञे — यज्ञ में (त्यागपूर्ण कर्म में)
  • प्रतिष्ठितम् — स्थापित, निहित

वेदों में सभी जीवों के लिए कर्म निश्चित किए गए हैं और वेद परब्रह्म भगवान से प्रकट हुए हैं। परिणामस्वरूप सर्वव्यापक भगवान सभी यज्ञ कर्मों में नित्य व्याप्त रहते हैं।

विस्तृत भावार्थ

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कर्म की परम पवित्रता और उसकी दिव्य उत्पत्ति को स्पष्ट करते हैं। वे कहते हैं कि हर कर्म, जो धर्मानुसार और यज्ञ भावना से किया जाता है, वह वेदों के अनुसार होता है। वेद स्वयं उस “अक्षर ब्रह्म” — अविनाशी, अनंत, परम तत्त्व — से उत्पन्न हैं।

इस प्रकार, कर्म का मूल भी परमात्मा ही हैं। कर्म का विधान वेदों ने बनाया है, वेदों को ब्रह्म से प्रेरणा मिली है, और वह ब्रह्म — परमात्मा — हर जगह व्याप्त है। इसीलिए जब हम कर्म को यज्ञ भावना से करते हैं, तो वह ब्रह्म की सेवा बन जाता है।

“यज्ञे प्रतिष्ठितम्” — अर्थात ब्रह्म का स्थायी निवास यज्ञ में है। जब कोई व्यक्ति निःस्वार्थ रूप से कर्तव्य करता है, सेवा करता है, त्याग करता है — वही ब्रह्म के निकट पहुँचता है।

भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण

दार्शनिक दृष्टिकोण

यह श्लोक ब्रह्माण्ड की कर्म-व्यवस्था की दिव्यता को प्रकट करता है।

  • कर्म केवल सांसारिक दायित्व नहीं है,
  • वह वेदों से निकला है, और
  • वेद स्वयं ईश्वर की वाणी हैं।

इसलिए कर्म को तुच्छ या सामान्य समझना आत्मवंचना है। जब हम वेदों में बताए अनुसार कर्म करते हैं — सेवा, दान, त्याग, यज्ञ, परिवारिक दायित्व — तब हम ईश्वर की व्यवस्था में भागीदारी कर रहे होते हैं।

“यज्ञ” यहाँ प्रतीक है उस जीवनशैली का जिसमें त्याग, सेवा, समर्पण और समत्व हो। जो भी कर्म इस भावना से किया जाता है, वह “नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठित ब्रह्म” के अनुसार, दिव्य बन जाता है।

प्रतीकात्मक अर्थ

  • कर्म — मनुष्य का धर्म, दायित्व
  • ब्रह्म — वेद, जो ईश्वरीय ज्ञान का प्रतीक हैं
  • अक्षर — अविनाशी परमात्मा
  • यज्ञ — त्यागमय जीवन, निष्काम कर्म
  • प्रतिष्ठित — ब्रह्म की स्थिर उपस्थिति — हर सेवा में, हर त्याग में

आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा

  • कर्म कोई तुच्छ या बोझ नहीं, वह दिव्यता की ओर जाने का माध्यम है।
  • वेद, जो ब्रह्म से उत्पन्न हैं, हमें धर्मयुक्त कर्म की शिक्षा देते हैं।
  • यज्ञ अर्थात निष्काम कर्म के माध्यम से ही ब्रह्म को अनुभव किया जा सकता है।
  • हर कर्म अगर समर्पण और त्याग से हो, तो वह ब्रह्म को प्राप्त करने का सीधा मार्ग बन जाता है।

आत्मचिंतन के प्रश्न

क्या मैं अपने कर्मों को एक आध्यात्मिक साधना के रूप में देखता हूँ?
क्या मेरे कार्य धर्म और वेदों की मर्यादा में हैं?
क्या मैं निष्काम कर्म करता हूँ या फल की लालसा से बँधा हूँ?
क्या मेरे जीवन में यज्ञ की भावना — त्याग और सेवा — है?
क्या मैं यह समझता हूँ कि हर कर्तव्य ब्रह्म की सेवा है?

निष्कर्ष

श्रीकृष्ण इस श्लोक में कर्म की पवित्र श्रृंखला का उद्घाटन करते हैं:
कर्म → वेद से उत्पन्न → वेद → ब्रह्म से उत्पन्न → ब्रह्म → यज्ञ में प्रतिष्ठित

यह संकेत करता है कि प्रत्येक धर्मानुकूल कर्म अपने आप में ईश्वर से जुड़ने का एक माध्यम है। यज्ञ यानी निःस्वार्थ भाव से किया गया कार्य — वहीं वास्तविक भक्ति है।

इसलिए मनुष्य को अपने प्रत्येक कर्म को पूजा के रूप में, यज्ञ के रूप में, सेवा के रूप में करना चाहिए। यही कर्मयोग है, यही मोक्ष की ओर बढ़ने की राह है।

“जब कर्म में हो समर्पण की भावना,
और सेवा में छिपा हो ईश्वर का नाम,
तब जीवन बन जाता है यज्ञ का रूप,
और हर कार्य देता है मुक्ति का धाम।”

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