मूल श्लोक: 33
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति॥
शब्दार्थ
- सदृशं — समान रूप से, जैसा
- चेष्टते — कार्य करता है, क्रिया करता है
- स्वस्याः — अपनी (अपनी प्रकृति की)
- प्रकृतेः — प्रकृति, स्वभाव
- ज्ञानवानपि — ज्ञानी व्यक्ति भी
- प्रकृतिं यान्ति — प्रकृति के अधीन होते हैं, उसी के अनुसार चलते हैं
- भूतानि — प्राणी, जीव
- निग्रहः — नियंत्रण, प्रतिबंध
- किं करिष्यति — क्या कर पाएगा?
बुद्धिमान लोग भी अपनी प्रकृति के अनुसार ही कार्य करते हैं क्योंकि सभी जीव अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति से प्रेरित होते हैं। दमन से क्या प्राप्त हो सकता है?

विस्तृत भावार्थ
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि चाहे कोई कितना भी ज्ञानवान हो, वह भी प्रकृति के नियमों और स्वभाव के अनुसार ही कार्य करता है। यहाँ “प्रकृति” से तात्पर्य है हमारे अंदर विद्यमान सात्विक, राजसिक और तामसिक गुणों की प्रकृति, जो हमारे व्यवहार और कर्मों को नियंत्रित करती है।
“सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेः” का अर्थ है कि प्रत्येक जीव अपनी स्वभाविक प्रवृत्ति और गुणों के अनुसार कर्म करता है। ज्ञान से पूर्ण व्यक्ति भी इससे अलग नहीं होता। वह भी अपने स्वभाव के अनुसार ही कर्म करता है, क्योंकि प्रकृति के नियम से वह बंधा हुआ है।
इसलिए जब यह कहा गया है “निग्रहः किं करिष्यति” — इसका आशय यह है कि यदि आप कर्म को रोकने या नियंत्रण करने का प्रयास करें, तो वह व्यर्थ होगा क्योंकि सभी जीव, चाहे ज्ञानी हों या सामान्य, प्रकृति के नियमों के अधीन हैं और उसी के अनुसार कर्म करते हैं।
भावात्मक व्याख्या और गहराई से विश्लेषण
दार्शनिक दृष्टिकोण
यह श्लोक प्रकृति और आत्मा के संबंध को समझने के लिए महत्वपूर्ण है। यहाँ “प्रकृति” कर्मों की सक्रिय शक्ति है, जो सभी जीवों के शरीर और मन को संचालित करती है। ज्ञानवान व्यक्ति भी प्रकृति के नियमों से ऊपर नहीं है, वह भी प्रकृति के अंतर्गत कर्म करता है।
यहाँ से यह स्पष्ट होता है कि कर्म करना अनिवार्य है क्योंकि कर्म प्रकृति का नियम है। अतः कर्मों का परित्याग नहीं, बल्कि उन्हें ज्ञान और समत्व से करना ही श्रेष्ठ है।
प्रतीकात्मक अर्थ
- प्रकृति — शरीर और मन की स्वभाविक शक्तियाँ, जो कर्मों को उत्पन्न करती हैं
- ज्ञानवानपि — जो आत्मा का ज्ञान प्राप्त कर चुका है, फिर भी शरीर-प्रकृति के अधीन है
- निग्रहः — बाहरी रोकथाम या दबाव जो कर्म को रोकने का प्रयास करता है
- किं करिष्यति — जब प्रकृति कर्म के लिए बाध्य करे, तो रोकना असंभव है
आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा
- सभी जीव प्रकृति के नियमों के अधीन हैं, इसलिए कर्म करना अनिवार्य है।
- ज्ञान से कर्म के स्वभाव में परिवर्तन आता है, पर कर्म न करना संभव नहीं।
- कर्मों का नियंत्रण बाहरी उपायों से नहीं, बल्कि ज्ञान और समत्व से होता है।
- समझना आवश्यक है कि प्रकृति के नियमों से भागना संभव नहीं; कर्मों को सही दृष्टिकोण से करना चाहिए।
आत्मचिंतन के प्रश्न
क्या मैं यह समझता हूँ कि कर्म करना प्रकृति का नियम है?
क्या मैं ज्ञान से अपने कर्मों को नियंत्रित करने का प्रयास करता हूँ?
क्या मैं कर्म को रोकने के प्रयास में अनावश्यक संघर्ष करता हूँ या उसे स्वीकार कर समझदारी से करता हूँ?
क्या मुझे अपने स्वभाव (प्रकृति) के अनुसार कर्म करने की स्वीकृति है?
क्या मैं अपने कर्मों को समत्व और निष्काम भाव से करने का प्रयास करता हूँ?
निष्कर्ष
यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि कर्म का त्याग या नियंत्रण केवल बाहरी प्रयासों से संभव नहीं है, क्योंकि प्रकृति ही कर्मों की उत्पत्ति करती है। ज्ञानवान व्यक्ति भी प्रकृति के अधीन रहते हुए कर्म करता है। इसलिए, कर्मों का सही मार्ग वही है जिसमें हम अपने कर्म को ज्ञानी होकर, समभाव और निष्काम भाव से करें।
कर्म का बंधन तभी टूटता है जब हम कर्म के साथ आसक्ति और फल की इच्छा छोड़ देते हैं, न कि कर्म करना छोड़ देते हैं। इस प्रकार यह श्लोक कर्मयोग की गूढ़ शिक्षा प्रदान करता है।